गुरु/धर्म कह-कह कर थक गए कि… “करो ना, करो ना”(*),
यदि कर लिया होता, तो आज यह न कहना पड़ता कि…
“करो ना”(**)
(*)…..जो करने योग्य/ करना चाहिए था
(**)…बाह्य/ क्रियात्मक मत करो

चिंतन

गंध खायी नहीं जा सकती, ऐसे ही जिसकी सौगंध ली जा रही हो जैसे “भगवान की”, तो उसे भी तो खा नहीं सकते ।
अत: सौगंध नहीं खाना चाहिये ।

मुनि श्री सुधासागर जी

चिड़ियाँ अपने बच्चों को “घौंसला” नहीं देतीं,
सिर्फ ऊँचाइयाँ पाने का “हौंसला” देती हैं ।
मनुष्य सिर्फ घौंसले और घौंसले ही देते हैं ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

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