छोटे (वर्तमान) समस्या का समाधान मांगते हैं, जैसे दुर्योधन ने सेना माँगी, कृष्ण नहीं ।
बड़े ऐसा देते हैं (बिना मांगे) जिससे समस्या आयेगी ही नहीं ।

मंत्र से पत्थर की मूर्ति भगवान बन जाती है, पर मनुष्य ?
मनुष्य मंत्र से नहीं, गुरु की मंत्रणा से मूर्ति रूप भगवान ही नहीं स्वयं साक्षात भगवान बन सकते हैं ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

मन तो चंचल ही होता है, चाहे साधु का ही क्यों न हो !

आ. श्री शांतिसागर जी – पर साधु मन के विकल्पों को समाप्त कर देते हैं सो एक (धर्म) जगह टिका रहता है जैसे समुद्र के बीच जहाज पर बैठा पक्षी ।

मुठ्ठी बांधे आते हैं (पुण्य लेकर; मनुष्य ही) हाथ पसारे जाते हैं (पुण्य खर्च करके),
फिर भी वैभव को मुठ्ठी में बांधे रखने की कोशिश करते रहते हैं ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

कुछ मतानुसार भगवान पापियों का नाश करने आते हैं,
अन्य मतानुसार पुण्यात्माओं के उद्धार के लिये,
पर वीतराग धर्मानुसार अपने अंदर बैठे कर्मरूपी आतंकी का नाश करके भगवान बनते हैं ।
उनको देखकर पापी तथा पुण्यात्मा अपने कर्मों को स्वयं क्षय करने की विधि सीख सकते हैं ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

थोड़ी दूर/देर की यात्रा के लिये रिजर्वेशन नहीं कराते हैं, विषम परिस्थितियाँ भी झेल लेते हैं कि थोड़ी देर की ही तो बात है ।
जीवन और जीवन में आयी परेशानियों के बारे में ऐसा क्यों नहीं सोचते ?

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

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