व्रती शब्द वृत से बना है, जिस‌की परिधि हो। परिधि को भी छोटा करते जाते हैं।
लगातार सुधार के कारण व्रत बोझल/ Boring नहीं लगते/ उत्साह बना रहता है। सुधार काय में तो होना कठिन है सो मन और वचन सुधारें।

ब्र.डॉ.नीलेश भैया

अक्षर/ शब्दों को लिखकर काटने/ मिटाने में भाव-हिंसा तथा अंकों को काटने/ मिटाने में ज्ञान के प्रति अविनय है।

मुनि श्री मंगल सागर जी

रोना हो तो हिंदी में, हंसना हो तो हिंदी में
जीना हो तो शांति से, मरना हो तो शांति से।

शांतिपथ प्रदर्थक

(शांति तभी मिलेगी जब हम अपने में/ अपनी भाषा/ अपने धर्म में आ जायेंगे)

1. गृहस्थ बार-बार हानि होने पर भी धनोपार्जन का पुरुषार्थ करता रहता है।
2. साधु हीन पुरुषार्थ होते हुए भी परीषह (कठिनाइयों) जय करने में महान पुरुषार्थ करते रहते हैं।

क्षु.श्री जिनेंद्र वर्णी जी

आँखों की पूजा आज तक किसी ने नहीं की, सब चरणों की ही पूजा करते हैं।
यानी दृष्टि नहीं, आचरण पूज्य होता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

वनस्पति दो प्रकार की →
1. जो अपने फल खुले में रखते हैं/ पकने पर दूसरों के लिये गिराते रहते हैं जैसे आम, अमरूद।
इन वृक्षों की फल देने के बाद भी देखभाल, खाद/ पानी दिया जाता है।
2. जो अपनी सम्पदा को छुपाकर रखते हैं, आलू, प्याज। इनको जड़ से उखाड़ दिया जाता है।
ऐसे ही व्यक्ति → पहली किस्म वालों का सम्मान होता है। उनकी सब Help करते हैं। दूसरे किस्म वालों की यादें जड़ से समाप्त कर दी जाती हैं।

(अरविंद)

आर्यिका श्री ज्ञानमति माताजी ने अपनी पुस्तक की टीका लिखने के लिये एक पंडित जी से कहा। उन्होंने असमर्थता का कारण बताया… पहले मैं युवा था, टीका लिखने के लिये आधा किलो घी पीता था, अब उम्र बड़ी हो जाने के कारण इतना घी पचा नहीं सकता।

(विमल चौधरी)

हृदयांगन में सुगंधित गुण रूपी फूल खिलने पर, आँगन सुंदरता/ सुगंधी से तो भर ही जाता है तथा सत्संगी रूपी तितलियाँ भी मंडराने लगती हैं, जिससे वातारण और-और सुंदर बन जाता है।

चिंतन

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