(डाॅ.एस.एम.जैन)
चारों कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) में से सिर्फ मान (गर्व) का “मान” किया जाता है, कैसी विडम्बना है ?
कमल कांत
दुर्जनों से ही नहीं उनकी छाया से भी दूर रहना चाहिये।
Safe-distance बना कर रखें।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
ज़हर को जानो, धारण मत करो !
ऐसे ही अन्य अवांछनीय चीज़ों के लिये समझें।
(ज़हर से तो एक झटके में मृत्यु होती है। अवांछनीय चीज़ों से धीरे-धीरे, Slow Poison हैं)
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
(रेनू – नया बाजार मंदिर)
संसार कहता है धन कमाओ, परमार्थ कहता है जीवन को धन्य करो; दोनों में सामंजस्य कैसे बैठायें ?
बाएं हाथ से धन कमाओ, दाएं हाथ से धन लगाओ (परमार्थ में)।
धन भी आ जायेगा तथा जीवन धन्य भी हो जायेगा। बांध बना कर पानी रोको पर रोके ही मत रहने दो।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
गणेश विसर्जन के समय नाव पलट गयी। भक्तों ने गणेश जी से बचाने के लिये प्रार्थना की।
गणेश जी प्रकट तो हुए पर नृत्य करने लगे।
प्रभु! आप ये क्या कर रहे हैं ?
वही जो तू मुझे डुबाने के बाद करता है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
ध्यान दो रूप –
1. चिंतन रूप → गृहस्थों के लिये, गुणवानों के गुणों का।
2. एकाग्रता रूप → साधुओं के लिये।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
1. दुष्टता – द्वेष रूप/ गंदा पानी
2. इष्टता – राग रूप/ सादा पानी
3. माध्यस्थता – वीतरागता रूप/ नमी रहित
चिंतन
चिंतन ध्यान से पहले की प्रक्रिया।
चिंतन में वस्तु के इर्द गिर्द घूमते हैं, ध्यान में वस्तु के केंद्र पर केन्द्रित; दोनों एक साथ चलते हैं।
विशुद्धता(गुणस्थान) की अपेक्षा → प्रारम्भ तथा अंत समान गुणस्थान पर।
शंका-समाधान- 3 (मुनि श्री प्रणम्यसागर जी)
गुण जब तक गुणीजनों के पास रहता है, उसकी गुणवत्ता बनी रहती है।
अवगुणी के पास होने पर वह अपनी गुणवत्ता खो देता है।
(जैसे बोलने की कला)
डायरी के ऊपर और आखिर में जिल्द होती है। Solid/ निश्चित, इन पर कुछ लिख नहीं सकते।
ऊपर बहुत कुछ पहले से लिखा रहता है (भाग्यानुसार ही जन्म)। आखिर में भी जिल्द (अंत निश्चित)।
बीच के पन्ने अच्छा/बुरा लिखने के लिये।
जीवन इस डायरी की तरह ही होता है।
चिंतन
नाम ज्यादा चाहोगे तो बदनाम के रूप में भी मिल सकता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
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