जिज्ञासा अपूर्णता से पैदा होती है या महत्वाकांक्षा बहुत हो जाने पर।
जिज्ञासायें समाप्त होने पर/ संतुष्ट होना ही समाधि है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

कड़वी निबोली को चींटी भी नहीं काटतीं, मीठी होने पर नोचने/ खसोटने लगती हैं।
यदि आपको कोई सता रहा है/ निंदा कर रहा है तो यह प्रमाण है कि आप में गुणों की मिठास है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

जो जिंदा को प्यार करते हैं, वही जाने के बाद उनसे प्यार कर सकते हैं जैसे भगवान को उनके जाने के बाद भी प्यार करते हैं।
(बुजुर्गों को जिंदा में इज्ज़त दी नहीं, मरने के बाद उनके फोटो पर माला चढ़ाना दिखावा है, प्यार नहीं)

यदि कोई कटु-शब्द कहे तो चिंतन करें →
1. ये शब्द मेरे ही तो हैं (कभी मैंने कहे होंगे)
2. कहने वाला मेरा ही कोई है (मित्र/ रिश्तेदार/ साधर्मी)
3. मेरे कर्म ही तो उदय में आकर मुझे फल दे रहे हैं।
बुदबुदायें → मदियम् , मदियम् , मदियम्
(मेरा है, मेरा है, मेरा ही तो है)

विद्वत विनोद शास्त्री – सांगानेर

यदि शरीर को ज्यादा महत्व दिया तो आत्मा Neglect हो जाती है जैसे एक बेटे को ज़रूरत से ज्यादा महत्व देने पर दूसरा बेटा Neglected महसूस करने लगता है।

क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी

अंतराय अच्छे कार्य में ही आते हैं।
(तो अंतराय आने पर घबरायें नहीं, मानें आपके निमित्त से कुछ अच्छा कार्य हो रहा है)

आचार्य श्री विद्यासागर जी

दो लोग संवाद करते हैं, वे दो नहीं छह होते हैं – दोनों के तीन तीन मन, वचन, काय।
(जब इस तथ्य को ध्यान में नहीं रखा जाता तब संवाद विसंवाद बन जाते हैं)

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

कितने बड़े-बड़े जंगलों में बड़ी-बड़ी अग्नि लगी/ कितनी बार प्रलय आयी, पर आसमान गरम तक नहीं हुआ|
कारण ?
बहुत ऊँचाई पर है।
यदि हम भी अपनी ऊँचाइयाँ बढ़ा लें तो हम भी बड़ी-बड़ी घटनाओं से प्रभावित नहीं होंगे।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

स्वयं के स्नान करने का उद्देश्य यदि भगवान का अभिषेक हो तो बहुत पुण्य-बंध।
भगवान का अभिषेक करते समय यदि अपने नहाने का ध्यान किया तो पुण्य-क्षय।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

गुरु दर्शन कठिन (चक्षु इन्द्रिय से)
गुरु आर्शीवाद दुर्लभ (कर्ण इन्द्रिय से)
गुरु वचन दुर्लभ से दुर्लभ (मन, कर्ण इन्द्रिय से)

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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