ज़िंदगी तो अपने कंधों पर जी जाती है,
दूसरों के कंधे पर तो जनाज़ा जाता है ।

श्री नवजोतसिंह सिद्दू

मनुष्य ही क्षमा धारण कर सकते हैं, देवता भी नहीं ।
देवता तो अमृत पीकर भी ईर्ष्या करते हैं ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

अपनी जितनी भावनायें हो, उतना हमें मिले ही, ऐसा नियम नहीं है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(फिर वे भावनायें संसारिक हो या पारमार्थिक, मुख्यता है – मंद कषायी होने की ।

गिलास में मुठ्ठी भर नमक ड़ाल दो तो पिया नहीं जाता,
जबकि बड़े तालाब में ड़ालने से मिठास में कोई अंतर नहीं आता ।
यदि हम भी बड़े हो जाऐं तो ये छोटी मोटी निंदा आदि हमारे मीठेपन को नष्ट नहीं कर पायेगी ।

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