विदेश में बहुत दिन रह आओ, तो क्या वह आपका घर कहलायेगा ?

संसार में कितने दिन भी भटक लो, पर उसे घर मत मानने लगना, घर तो हम सबका धर्म की शरण ही है, मोक्ष ही है ।

चिंतन

  • पर्युषण पर्व के 10 दिनों में जो विशुद्धता आयी, उससे क्षमा के भाव बनते हैं।
  • सही तरीका तो यह है कि जिनसे पिछ्ले दिनों में बैर हुआ है, उनसे बुजुर्ग लोग मन मुटाव को दूर करायें या हम स्वयं अपने मन मुटाव को दूर करें ।
  • श्री रफी अहमद किदवई (केन्द्रिय मंत्री) की अपने मित्र से नाराजगी हो गयी, मित्र ने अपने लड़की की शादी में उन्हें नहीं बुलाया पर वे अपने परिवार सहित उपहार लेकर पहुँच गये और मन मुटाव सौहार्द में बदल गया ।
  • क्रोध कम समय के लिये होता है,
    बैर लंबे समय के लिये होता है ।
    गुरुजन कहते हैं कि बैर क्रोध का अचार है ।
  • जो कर्म पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जीयरा ।
    आचार्य श्री विद्यासागर जी नित्य प्रवचन में कहते हैं जो मेरा अपकार कर रहा है वह (आत्मा) तो दिख नहीं रहा है,
    जो दिख रहा है (शरीर) वह अपकार कर नहीं सकता ।
    तो मैं बुरा किसका मानूं ?
  • धर्म की अनुभूति के लिये सबसे पहले बैर आदि दूर करने होंगे ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • क्षमा भाव मन में रमें,
    सत्य सरलता साथ,
    शुभ मंगलमय जीवन में,
    प्रभु भक्ति के भाव ।

माँ ( श्रीमति मालती जी)

हमने हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी बड़ी धूमधाम से पर्युषण महापर्व मनाया और उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मों को अपने जीवन में यथाशक्ति अंगीकार किया, क्यों न अगले 365 दिन भी हम यथाशक्ति 10 धर्मों के साथ जीवन जियें और इस तरह जीवन व्यतीत करते हुये जीवन के अंत समय में समाधिमरण पूर्वक इस नश्वर देह का त्याग करें ।

श्री संजय

  • आत्म कल्याण के लिये पांचों इन्दियों के विषयों/पापों को छोड़ना उत्तम ब्रम्हचर्य है।
    आचार्य श्री विद्यासागर जी ब्रम्हचर्य के लिये इष्ट, गरिष्ठ, अनिष्ट आहार ना लेने की सावधानी बताते हैं ।
    शारीरिक श्रंगार और कुसंगति इसमें बड़ा अवरोध है ।
  • आत्मा में रमण करना उत्तम ब्रम्हचर्य है ।
    रमण करना तो हमारा स्वभाव है पर स्वयं में रमण ब्रम्हचर्य और पर पदार्थों में अब्रम्ह है ।
  • मन वाला तो ठीक पर मतवाला ठीक नहीं ।
  • गृहस्थों के लिये एक पत्नी/एक पति संयम को ब्रम्हचर्याणुव्रत कहा है ।
  • शील के बिना कोई धर्म का स्वाद ले ही नहीं सकता है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • बाह्य और अंतरंग ममत्व का पूरी तरह से छूटना उत्तम आकिंचन्य है ।
  • परिग्रह तो दुख ही है, क्योंकि इसमें रागद्वेष उत्पन्न होता है ।
  • परिग्रह का भाव क्यों आता है ?
    1. लोभ के कारण ।
    2. दूसरों का वैभव देखने से ।
  • वैभव कम होने से दीनता नहीं आती ?
    नहीं, आनंद आता है ।
    परिग्रह के साथ तो आनंद का भ्रम है क्योंकि इसमें तो  आकुलता हमेशा बनी रहती है ।
  • आकिंचन्य लाने के लिये क्या करें ?
    1. न्याय पूर्वक अहिंसक व्यापार करें ।
    2. कर्म फल में विश्वास रखें (जो कम ज़्यादा मिला है वो मेरे पूर्व कर्मों का फल है)।
    3. अपने से छोटों को देखें और जो मिला है उसमें संतोष रखें ।
    4. साधुजनों की संगति करें ।
    5. अपने आत्म स्वरूप को पहचानें और चिंतन करें ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • एक कंजूस आदमी का लड्डू जमीन पर गिर गया, उसने उठाकर थैली में डाल लिया ।
    लोगों के टोकने पर उसने कहा घर जाकर इसे साफ़ करके फेंक  दूंगा ।
    हम पैसा कमाने का उद्देश्य भी कुछ ऐसे ही बताते हैं –
    “हम तो ज्यादा इसलिये कमाते हैं ताकि ज्यादा दान दे सकें ।”
    यानि पहले कीचड़ में लिप्त हो फिर सफ़ाई करो ।

रत्नत्रय- भाग-2

  • स्व और पर कल्याण के लिये अपनी वस्तु का त्याग ।
  • आदर्श त्याग – विषयभोगों का + अंतरंग और बाह्य परिग्रह का ।
  • गृहस्थों का त्याग – विषय भोग, कषाय तथा परिग्रह कम करना
    तथा चारों प्रकार के दान – आहार, ज्ञान, औषधि, अभय ।
  • त्याग का फल कम ज्यादा निम्न कारणों से होता है ।
    1. विधि – जैसे आहार विधि पूर्वक देना ।
    2. द्रव्य – आहार पात्र, स्वास्थ्य, स्थान और मौसम की अनुकूलता के अनुसार हो ।
    3. दाता – भक्ति पूर्वक, मन से दान दें ।
    4. पात्र – I. सुपात्र – व्रती लोग II. कुपात्र – बाहर से व्रती पर भाव अच्छे नहीं III. अपात्र – अयोग्य ।
    सुपात्र को दान देने से फल अधिक मिलता है ।
  • दान/त्याग – त्याग पूरी वस्तु का किया जाता है और इसमें ग्रहण करने वाले की अपेक्षा नहीं होती है ।
    दान में कुछ भाग ही दिया जाता है और पात्र की अपेक्षा से देते हैं । यह गॄहस्थों के ही होता है ।
  • करुणादान जैसे रक्तदान, मरण के पश्चात नेत्र दान, प्याऊ आदि लगवाना ।
    इसमें पात्र की अपेक्षा नहीं रहती है ।
  • कितना दान करें ?
    1. उत्तम – आय का 1/4 भाग ।
    2. मध्यम – आय का 1/6 भाग ।
    3. जघन्य – आय का 1/10 भाग ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • कम से कम उन चीज़ों का तो त्याग कर ही दें –
    1. जो आपके लिये हानिकारक हैं ।
    2. जिनका आप प्रयोग नहीं करते ।
    3. जो आपसे कोई ले गया हो और लौटा नहीं रहा हो ।

बाई जी

  • इच्छाओं का निरोध ही तप है ।
  • दो तरह के लोग होते हैं –
    1. खाने पीने और मस्त रहने वाले, ये दुर्गति को प्राप्त होते हैं ।
    2. साधना तप करने वाले जो इस जन्म में और अगले जन्म में भी सुगति प्राप्त करते हैं ।
  • फिर हम तप क्यों नहीं कर पाते ?
    1.  हमें उसकी महिमा/फल पर विश्वास नहीं है ।
    2.  दूर से देखने पर हमें कष्ट मालूम पड़ता है ।
    3.  इच्छाशक्ति की कमी ।
  • तप क्यों ?
    1. कर्मों को जलाने के लिये ।
    2. पुण्य बंध के लिये ।
    3. पापों से बचने के लिये ।
    4. समाधिमरण में सहायक होता है ।
    5. मोक्ष प्राप्ति के लिये ।
  • तप के भेद –
    1. छ: बाह्य जो दिखाई देते हैं – उपवास आदि ।
    2. छ: अंतरंग – प्रायश्चित्त आदि ।
  • वैसे तो उत्तम तप साधूओं में होता है पर गृहस्थों को भी इसका आंशिक रूप से पालन करना चाहिए और धीरे धीरे इसको बढ़ाना चाहिए, जैसे नमक आदि छोड़ना, बाहर की चीजें छोड़ना, पर्वों पर एकासन/उपवास करना ( सामूहिक करने में आसानी हो जाती है ) ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • Tap (नल) की तासीर है कि उसे प्रयोग (खोलना) करो तो टंकी खाली हो जाती है ।
    “Tap” की हिन्दी “तप” की भी यही प्रकृति है ।
    तप से भी कर्मों की टंकी खाली हो जाती है ।

चिंतन

  • संयम का अर्थ है एक सशक्त सहारे के साथ हल्का सा बंधन ।
    यह बंधन निर्बंध करता है ।
    आज तो हम बिना ब्रेक की गाड़ी में नीचे जाते हुये भी आँखें मींचे हुये बैठे हैं ।
    क्या ब्रेक रूपी संयम के बिना जीवन की गाड़ी सुरक्षित रह पायेगी ?

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • संयम दो प्रकार का है –
    1. इंद्रियों (पाँच इंद्रिय + मन) पर नियंत्रण ।
    2. प्राणियों (वनस्पतिकायिक आदि पाँच प्रकार तथा त्रस – जानवर, मनुष्य आदि) की रक्षा ।
  • मनुष्य पर्याय के लिये ये बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि नारकी और देवों में ये हो ही नहीं सकता तथा त्रियंचों (जानवर) में थोड़ा संयम थोड़ा असंयम ही हो सकता है ।
    पूर्ण संयम तो मनुष्य पर्याय में ही संभव है,
    और मनुष्य पर्याय असंख्यात बार नरक और स्वर्ग में जन्म लेने के बाद मिलती है ।
  • असल में धर्म, चारित्र का ही दूसरा नाम है ।
  • अनंतकाल से संसार का भ्रमण असंयम से ही हो रहा है ।
    एक बच्चा एक वृद्ध को बाग दिखाने ले गया और जिस पेड़ पर जो फल लगा था उसका नाम बताता रहा ।
    एक पेड़ पर फल नहीं लगे थे, वृद्ध ने जब उसका नाम पूछा तो बच्चे का जबाब था –
    बिना फल के पेड़ का नाम (महत्व) क्या !
    संयम/अनुशासन के बिना मनुष्य के जीवन का महत्व क्या ?
  • वर्तमान में वातावरण विपरीत है, फिर भी यथासंभव संयम हम सबको धारण करना चाहिए ।
  • संयम का क्रम –
    1. पहले व्यसनों (शराब, अभक्ष्य आदि) का त्याग करें ।
    2. मूलगुणों (भगवान के दर्शन आदि) का पालन करें ।
    3. बच्चों को शुरू से ही अभ्यास करायें ।
    4. कम से कम संयम की भावना तो रखें और अपनी इच्छा शक्ति मज़बूत करें ।
  • संयम का फल –
    1. संयम रखने से महान कर्मों की निर्जरा (झड़ना) होती है ।
    2. इच्छा शक्ति बढ़ती है ।
    3. सेहत अच्छी रहती है ।
    4. भावना विशुद्ध होती है ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • संयम मशीन में डालने वाला तेल है,
    और असंयम मशीन में कंकड़ पत्थर ड़ालने जैसा है ।

ड़ाँ. एस. एम. जैन- चिंतन

  • परनिंदा/चुगली , पाप में प्रवृत्ति, अप्रिय , असंयम को प्रेरणा देने वाले , डर पैदा करने वाले और शोक/संताप कराने वाले वचन भी असत्य होते हैं, किसी की गुप्त बातों का खुलासा करना भी असत्य है ।
  • गृहस्थी में असत्य से कैसे बचें ?
    1. अभिप्राय सही रखें ।
    2. घर और व्यवसाय में कम से कम असत्य का प्रयोग करें ।
    3. दूसरों को असत्य ना सिखायें ।
  • असत्य किन हालात मेंबोला जाता है ?
    1. क्रोध में
    2. लोभ में
    3. डर से
    4. मज़ाक में
  • साधूओं का सत्य  –
    आर्यिका श्री विशुद्धमति माताजी * ने साध्वी बनते समय अपना सर्विस फ़ंड आदि एक संस्था को दान कर दिया ।
    कुछ पेपरों पर उनके हस्ताक्षर रह गये थे सो संस्था वाले उनसे हस्ताक्षर लेने आये, माताजी ने पूर्व अवस्था के नाम (श्रीमति सुमित्रा जी) से हस्ताक्षर करने से मना कर दिया क्योंकि वह असत्य हो जाता ।
    (इस घटना से प्रेरित होकर सरकार ने वह पैसे संस्था को दिलवा दिये)
    (*इस साइट की मेंटिनैंस करने वाले श्री सुजश की दादी )

(पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • एक शेर को अपना मंत्री नियुक्त करना था ।
    उसने सब जानवरों को बुलाकर पूछा – मेरे मुँह से कैसी गंध आती है ?
    गधे ने कहा – दुर्गंध आ रही है,
    गीदड़ ने कहा – सुगंध आ रही है,
    सियार ने कहा – मुझे तो ज़ुकाम हो गया है ।
    सियार का चयन हो गया ।
    सत्य – हित, मित और प्रिय होना चाहिये ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

  • लोभ का उल्टा, जो जीवन को पवित्र करे ।
  • पवित्रता दो प्रकार की है –
    1. शारीरिक – जो तपस्या से आती है ।
    2. भावों की – जो गृहस्थों में संतोष तथा न्याय की कमाई से आती है ।
    साधुओं में आत्मचिंतन से आती है ।
  • पहली तीन कषाय (क्रोध, मान, माया) पाप रूप ही होती हैं,
    पर लोभ पुण्य रूप भी होता है जैसे – धार्मिक क्रियायें आदि ।
  • लोभ के प्रकार –
    1. धन का – हिंसा से कमाना ।
    2. शरीर का – अभक्ष्य चीजों का प्रयोग ।
    महात्मा गांधी जी का बेटा बहुत बीमार हो गया तो उसे अभक्ष्य खाने को बोला गया, ना बेटा तैयार हुआ और ना गांधी जी ।
    3. यश का – दान की पटिया लगवाना आदि ।
    4. विषय भोगों का – हिंसात्मक चीजों का प्रयोग ।
  • लोभ कैसे छोड़ें ?
    1. संतोष और आत्मचिंतन से ।
    2. कर्म सिद्धांत पर विश्वास रखें – जो आज मिल रहा है वो हमारे पुराने पुण्यों से है, यदि बेईमानी से कमायेंगे तो पुण्य क्षय होंगे ।
    3. दूसरों की समृद्धि को ना देखें ।
  • लोभ से हानि –
    1. लोभ में आदमी अंधा हो जाता है, गंदे से गंदे काम करने को तैयार रहता है ।
    2. हर समय संकल्प विकल्प रहते हैं ।
    3. सब लोग गिरी हुई दृष्टि से देखते हैं ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • चारौं  कषाय Iceberg की तरह हैं ।
    1. क्रोध – Iceberg का ऊपरी भाग दिखता है, चुभता है और नुकीला होता है ।
    2. मान – ऊपर से नीचे का भाग, क्रोध से बड़ा, दिखता है ।
    3. मायाचारी – पानी की सतह से नीचे का भाग, दिखता नहीं है, मान से बड़ा ।
    4. लोभ – सबसे नीचे का भाग, सबसे बड़ा, दिखता नहीं है, तीनों कषाय के बाद में स्वभाव से अलग होता है ।

क्रोध तथा मान तो थोड़े से भाग हैं दिखते हैं सो वे ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है ।
पर माया और लोभ छुपे रहते हैं, size भी बहुत बड़ा, बड़े बड़े जहाजों को ड़ूबा देते हैं ।

चिंतन

  • आर्जव धर्म , मायाचारी का उल्टा यानि सरलता ।
  • मायाचारी व्यक्ति प्राय: सांप जैसा होता है, ऊपर से सुंदर और चिकना, पर अंदर से ज़हरीला और पकड़ में ना आने वाला ।
  • आज कपट जीवन के हर खेल में घुसपैठ कर चुका है, यहाँ तक कि धर्म में भी ।
  • कपट से हानि –
    1. अविश्वसनीयता।
    2. कभी ना कभी पकड़े जाते हैं और फिर ज़िंदगी नरक बन जाती है ।
    3. शास्त्रानुसार अगले जन्म में जानवर बनते हैं ।
  • जीवन से कपट कैसे दूर करें ?
    1.स्पष्टवादी बनें  ।
    मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सो करिये ।
    2. जीवन में  सादगी लायें, अपनी आवश्यकतायें कम करें ।
    3. आत्मचिंतन करें – आत्मा का रूप शुद्ध है ।
    4. अच्छे शास्त्रों का अध्ययन करने की आदत डालें ।
    5. अपनी संगति ऐसे लोगों से रखें जो भौतिकवाद की दौड़ में ना हों ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • मान का उल्टा यानि कोमलता और विनयशीलता ।
  • मान के रूप – होने और ना होने, दोनों में मान आता है ।
    ( वैभव आदि के होने तथा सम्मान आदि ना होने में ) ।
  • मान स्वभाव नहीं, अज्ञान से आता है ।
  • कैसे बचें ?
    सोचें
    1. मुझे जो मिला है वह मेरे पूर्व के कर्मों से मिला है और जो नहीं मिला है, वो पुण्य की कमी से ।
    2. हम सब अच्छी बुरी अवस्थायों से गुज़रे हैं और गुज़रेंगे,
    जैसे इंदिरा गांधी बहुत प्रसिद्ध प्रधानमंत्री थीं, फिर उतरीं और पुन: बनीं ।
    3. धर्म की दृष्टि से देखें तो आत्मा ना छोटी है ना बड़ी ।
    4. हमारे पास जो भी है वो सब Temporary है ।
    5. दूसरों के गुणों पर दृष्टि रखें और उनकी प्रशंसा करें ।
    6. अपने अंदर कर्ता, स्वामित्व और भोगत्व का भाव ना आने दें ।
    7. अपने दोषों पर दृष्टि रखें ।
  • मार्दव धर्म का लाभ
    1. पुण्य मिलता है ।
    2. कर्म कटते हैं ।
    3. इस जन्म और अगले जन्मों में यश मिलता है ।
    4. आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है ( क्योंकि मार्दव आत्मा का स्वभाव है ) ।

    पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला  (पारस चैनल)

  • Burnt grass acts  as a manure,
    Burnt Desires make the progress sure,
    Burnt Coal gets rid of  blackness,
    Burnt  Ego leads a man to progress

    ( Ms. Rishika- Gauhati)

इस वर्ष यह पर्व 2 सितम्बर से 11 सितम्बर तक मनाया जायेगा ।
पर्यूषण का मतलब –  जो सब तरफ से पापों को नष्ट करे,
पर्व का मतलब       – अवसर या संधि ( Joint) – जो धर्म करने और ना करने वालों को मिलाने का अवसर दे ।

बरसात में व्यवसाय कम होता है, साधुजन एक स्थान पर रहने लगते हैं (चलने में घास, कीड़े-मकोड़े आदि की हिंसा से बचने के लिये) सो उनके सान्निध्य में धर्मध्यान ख़ूब होता है । इसलिये वर्षाकाल में पर्यूषण -पर्व अधिक उत्साह से मनाया जाता है ।

क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच                      – मन की पवित्रता के लिये ,
सत्य                                                       – वचन की पवित्रता के लिये ,
संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रम्हचर्य     – काय की पवित्रता के लिये हैं ।

आज का दिन उत्तम क्षमा का है ।
धर्म की शुरूआत क्षमा से ही होती है –
सब जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें ।

शुभकामनायें कि हम सब यह पर्व पूरी क्षमता और उत्साह से मनायें ।

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