Trust is just one word, but it takes –
1 second to read,
1 minute to think,
1 hour to explain,
1 day to feel,
1 week to demonstrate,
&
1 life to prove it.

(Mr. Rajat)

साधु संगति की महिमा दूध पानी जैसी है,
पानी दूध के साथ मिलकर दूध के भाव ही बिकने लगता है ।

मुनि श्री कुन्थुसागर जी

(पर दूध में ज़्यादा पानी मिलाने पर, दूध को सब थू थू करने लगते हैं )

दान से हमारे खाते में पुण्य नहीं पहुँच पाता,
मात्र कुछ पाप धुल पाते हैं ।

क्योंकि पुरूष ढेरों पाप करते हैं, धन कमाने में,
स्त्रियाँ ढेरों पाप करतीं हैं, घर के काम काजों में ।

एक शेर पेड़ के ऊपर बैठे बंदर को कैसे खा जाता है ?

शेर ने बंदर की परछांयी पर दहाड मार कर हाथ मारा तो बंदर डर कर नीचे गिर गया और शेर खा गया ।

हम भी वैभव, परिवारजन रूपी छाया को अपना मान कर दु:खी हो रहे हैं ।

एक शराबी नदी के किनारे बैठा था । वहीं एक राजा की सेना ने पड़ाव ड़ाला – हाथी, घोड़े आदि ।
शराबी बहुत खुश हुआ ।
सुबह सेना जाने लगी तो शराबी रोने लगा – मेरा ठाट बाट खत्म हो गया ।

हम सब भी परिवार आदि को पास देख खुश और जाने पर दुखी होते हैं ।
जबकि सब अपने कारणों से आते हैं और काम पूरा होने पर चले जाते हैं ।

विदेश में बहुत दिन रह आओ, तो क्या वह आपका घर कहलायेगा ?

संसार में कितने दिन भी भटक लो, पर उसे घर मत मानने लगना, घर तो हम सबका धर्म की शरण ही है, मोक्ष ही है ।

चिंतन

  • पर्युषण पर्व के 10 दिनों में जो विशुद्धता आयी, उससे क्षमा के भाव बनते हैं।
  • सही तरीका तो यह है कि जिनसे पिछ्ले दिनों में बैर हुआ है, उनसे बुजुर्ग लोग मन मुटाव को दूर करायें या हम स्वयं अपने मन मुटाव को दूर करें ।
  • श्री रफी अहमद किदवई (केन्द्रिय मंत्री) की अपने मित्र से नाराजगी हो गयी, मित्र ने अपने लड़की की शादी में उन्हें नहीं बुलाया पर वे अपने परिवार सहित उपहार लेकर पहुँच गये और मन मुटाव सौहार्द में बदल गया ।
  • क्रोध कम समय के लिये होता है,
    बैर लंबे समय के लिये होता है ।
    गुरुजन कहते हैं कि बैर क्रोध का अचार है ।
  • जो कर्म पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जीयरा ।
    आचार्य श्री विद्यासागर जी नित्य प्रवचन में कहते हैं जो मेरा अपकार कर रहा है वह (आत्मा) तो दिख नहीं रहा है,
    जो दिख रहा है (शरीर) वह अपकार कर नहीं सकता ।
    तो मैं बुरा किसका मानूं ?
  • धर्म की अनुभूति के लिये सबसे पहले बैर आदि दूर करने होंगे ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • क्षमा भाव मन में रमें,
    सत्य सरलता साथ,
    शुभ मंगलमय जीवन में,
    प्रभु भक्ति के भाव ।

माँ ( श्रीमति मालती जी)

हमने हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी बड़ी धूमधाम से पर्युषण महापर्व मनाया और उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मों को अपने जीवन में यथाशक्ति अंगीकार किया, क्यों न अगले 365 दिन भी हम यथाशक्ति 10 धर्मों के साथ जीवन जियें और इस तरह जीवन व्यतीत करते हुये जीवन के अंत समय में समाधिमरण पूर्वक इस नश्वर देह का त्याग करें ।

श्री संजय

  • आत्म कल्याण के लिये पांचों इन्दियों के विषयों/पापों को छोड़ना उत्तम ब्रम्हचर्य है।
    आचार्य श्री विद्यासागर जी ब्रम्हचर्य के लिये इष्ट, गरिष्ठ, अनिष्ट आहार ना लेने की सावधानी बताते हैं ।
    शारीरिक श्रंगार और कुसंगति इसमें बड़ा अवरोध है ।
  • आत्मा में रमण करना उत्तम ब्रम्हचर्य है ।
    रमण करना तो हमारा स्वभाव है पर स्वयं में रमण ब्रम्हचर्य और पर पदार्थों में अब्रम्ह है ।
  • मन वाला तो ठीक पर मतवाला ठीक नहीं ।
  • गृहस्थों के लिये एक पत्नी/एक पति संयम को ब्रम्हचर्याणुव्रत कहा है ।
  • शील के बिना कोई धर्म का स्वाद ले ही नहीं सकता है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • बाह्य और अंतरंग ममत्व का पूरी तरह से छूटना उत्तम आकिंचन्य है ।
  • परिग्रह तो दुख ही है, क्योंकि इसमें रागद्वेष उत्पन्न होता है ।
  • परिग्रह का भाव क्यों आता है ?
    1. लोभ के कारण ।
    2. दूसरों का वैभव देखने से ।
  • वैभव कम होने से दीनता नहीं आती ?
    नहीं, आनंद आता है ।
    परिग्रह के साथ तो आनंद का भ्रम है क्योंकि इसमें तो  आकुलता हमेशा बनी रहती है ।
  • आकिंचन्य लाने के लिये क्या करें ?
    1. न्याय पूर्वक अहिंसक व्यापार करें ।
    2. कर्म फल में विश्वास रखें (जो कम ज़्यादा मिला है वो मेरे पूर्व कर्मों का फल है)।
    3. अपने से छोटों को देखें और जो मिला है उसमें संतोष रखें ।
    4. साधुजनों की संगति करें ।
    5. अपने आत्म स्वरूप को पहचानें और चिंतन करें ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • एक कंजूस आदमी का लड्डू जमीन पर गिर गया, उसने उठाकर थैली में डाल लिया ।
    लोगों के टोकने पर उसने कहा घर जाकर इसे साफ़ करके फेंक  दूंगा ।
    हम पैसा कमाने का उद्देश्य भी कुछ ऐसे ही बताते हैं –
    “हम तो ज्यादा इसलिये कमाते हैं ताकि ज्यादा दान दे सकें ।”
    यानि पहले कीचड़ में लिप्त हो फिर सफ़ाई करो ।

रत्नत्रय- भाग-2

  • स्व और पर कल्याण के लिये अपनी वस्तु का त्याग ।
  • आदर्श त्याग – विषयभोगों का + अंतरंग और बाह्य परिग्रह का ।
  • गृहस्थों का त्याग – विषय भोग, कषाय तथा परिग्रह कम करना
    तथा चारों प्रकार के दान – आहार, ज्ञान, औषधि, अभय ।
  • त्याग का फल कम ज्यादा निम्न कारणों से होता है ।
    1. विधि – जैसे आहार विधि पूर्वक देना ।
    2. द्रव्य – आहार पात्र, स्वास्थ्य, स्थान और मौसम की अनुकूलता के अनुसार हो ।
    3. दाता – भक्ति पूर्वक, मन से दान दें ।
    4. पात्र – I. सुपात्र – व्रती लोग II. कुपात्र – बाहर से व्रती पर भाव अच्छे नहीं III. अपात्र – अयोग्य ।
    सुपात्र को दान देने से फल अधिक मिलता है ।
  • दान/त्याग – त्याग पूरी वस्तु का किया जाता है और इसमें ग्रहण करने वाले की अपेक्षा नहीं होती है ।
    दान में कुछ भाग ही दिया जाता है और पात्र की अपेक्षा से देते हैं । यह गॄहस्थों के ही होता है ।
  • करुणादान जैसे रक्तदान, मरण के पश्चात नेत्र दान, प्याऊ आदि लगवाना ।
    इसमें पात्र की अपेक्षा नहीं रहती है ।
  • कितना दान करें ?
    1. उत्तम – आय का 1/4 भाग ।
    2. मध्यम – आय का 1/6 भाग ।
    3. जघन्य – आय का 1/10 भाग ।

पं. रतनलाल बैनाड़ा जी – पाठ्शाला (पारस चैनल)

  • कम से कम उन चीज़ों का तो त्याग कर ही दें –
    1. जो आपके लिये हानिकारक हैं ।
    2. जिनका आप प्रयोग नहीं करते ।
    3. जो आपसे कोई ले गया हो और लौटा नहीं रहा हो ।

बाई जी

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