जब तक रिसेगा* नहीं, तब तक सीझेगा** नहीं।

चिंतन

* धर्म आचरण में आना
** दाल पकना/ कार्य सिद्धि

आज शक्तिहीन इसलिये क्योंकि कल जब शक्ति थी तब शक्ति को छुपाया/ उसका दुरुपयोग किया था।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

(आज यदि शक्तिमान हो फिर भी शक्ति छुपायी/ दुरुपयोग किया तो कल को शक्तिहीन हो जाओगे)

गहरे समुद्र में सांस घुटने से मछलियां नहीं मरतीं पर ज़रा से दाने के लोभ में लाखों जाल में फंसकर जान गँवाती हैं।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

सृष्टि अनमोल ख़जानों से भरी है पर एक भी चौकीदार नहीं है। व्यवस्था ऐसी की गयी है कि अरबों लोगों के आवागमन के बावजूद कोई एक तीली भी यहाँ से ले जा नहीं सकता।

(आतिफ़- कनाडा)

कर्मोदय ऐसा ही है जैसे बांबी से बाहर आया हुआ साँप।
यदि आप उसे सहजता से देखते रहे उसमें Involve नहीं हुये तो वह सहजता से निकल जायेगा।
आपको काटेगा नहीं/ ज़हर फैलेगा नहीं।

मुनि श्री सुधासागर जी

प्राय: बच्चे/ शिष्य उद्दंड होते हैं, उनको डंडे की जरूरत होती है,
पर डंडा गन्ने का होना चाहिये।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

साधक-कारण पूरे होने पर भी जरूरी नहीं कि कार्य पूर्ण हो ही जैसे घड़े बनाने के सारे कारण पूर्ण होने पर भी यदि बरसात (बाधक-कारण) आ जाये तो सफलता नहीं।

मुनि श्री अरुणसागर जी

संथारा- (श्वेताम्बर परंपरा) = आखिरी शयन,
Jumping Board – इस शरीर से दूसरे शरीर के लिये।
सल्लेखना – (दिगम्बरी परंपरा) – भीतर कषाय (क्रोधादि) को कृष करना तथा शरीर को कृष होते देखना, जब Unrepairable हो जाय तब पोषण/ पुष्ट करना छोड़ना।
समाधि – ( गृहस्थों को) = जहाँ आधि (मानसिक रोग/Tension), व्याधि (शारीरिक रोग), उपाधि – लोकेषणा, तीनों को छोड़ भगवान का नाम लेते हुए शरीर छोड़ना ।

गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

भगवान/गुरु वाणी पानी की तरह होती है,
पानी पात्रानुसार आकार ग्रहण कर लेता है;
भगवान/गुरु वाणी भी पात्र के अनुसार खिरती है।

मुनि श्री अरुणसागर जी

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