Worries and tensions are like birds. we can not stop them from flying near us,
but  we can certainly stop them from making a nest in our mind.

(Mr. Sanjay)

मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलने वाला मिल जाये, तो रास्ता सरल हो जाता है ।
और यदि रास्ता बताने वाला मिल जाये, तो रास्ता जल्दी कट जाता है ।

गुरू मोक्षमार्ग का ऐसा ही साथी और दिशा-निर्देशक है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • अंत:करण को अंजुली बनाकर के …..
    क्षमा का दान दें ।
श्री नीलेश भैया
  • लंबा है जीवन, गल्तियां अपार !
    आपके पास है क्षमा भाव अपरंपार,
    कर लीजिये विनती स्वीकार !
    क्षमा करें हमें हर बार,
    क्षमावाणी पर्व को करें साकार ।
श्री सौरभ, अंशु, सुकृति & तनुशा जैन
  • भूल होना प्रकृति है,
    मान लेना संस्कृति है,
    सुधार लेना प्रगति है । अंत:करण से क्षमायाचना करते हैं ।

    श्री अरविन्द & निशा बड़जात्या

‘भूल’ से अगर ‘भूल’ हो गयी, तो ‘भूल’ समझकर ‘भूल’ जाना,
मगर ‘भूल – ना’ सिर्फ ‘भूल’ को, ‘भूल’ से हमें मत ‘भूल’ जाना ।
“उत्तम क्षमा”

श्री सुदीप, मनीषा, & मिली

To get and forget is human nature,
To give & forgive is GODLY.
Let’s try to be GODLY.

MICHCHHAMI DUKKADAM.

Sri. Kalpesh

  • क्षमा अंत:करण की उदारता है ।
  • क्षमा सामाजिक और पारिवारिक तौर पर तो बहुत मांगी जाती है, पर असली तो आत्मिक और आंतरिक है ।
  • नींव की मजबूती कलश की शोभा को बढ़ाती है ।
    पर्युषण के 10 धर्म नींव हैं और क्षमा कलश ।
  • क्षमा के ‘क्ष’ शब्द में दो गाँठें होती हैं,
    पहली गाँठ दूसरों से तथा दूसरी स्वंय से ।
    ज्यादा गाँठें, पहचान वालों से ही पड़ती हैं,
    इन गाँठों को खोलना ही क्षमा है ।
  • संस्कृत में ‘क्ष’, ‘क’ और ‘श’ से मिलकर बनता है,
    ‘क’ से कषाय और ‘श’ से शमन,
    तथा ‘मा’ से मान का क्षय ।
  • क्रोध तो फिर भी छोटी बुराई है पर ध्यान रहे – यह बैर की गाँठ में ना परिवर्तित हो जाये ।
  • मच्छर भी खून चूसता है पर उसके मन में कषाय नहीं होती,
    पर जब हम उसे मारते हैं, तो कषाय से ही मारते हैं ।
  • गलती जानबूझ कर भी अपराध है और अनजाने में भी,
    जैसे जानबूझ कर ज़हर खाने में भी मरण तथा अनजाने में भी ।
  • अपने आंगन में, फूल ऐसे खिलायें, जिनसे पड़ौसी को सुगंध आए ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • पांचों इंद्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही उत्तम ब्रम्हचर्य है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • मस्तिष्क माचिस की डिब्बी है, घिसने से आग निकलती है, वासना की ओर घिसी तो जंगल के जंगल धू-धू कर जलने लगते हैं ।
    सही दिशा में दीपक जलकर प्रकाश और भगवान की आरती के लिए तैयार हो जाते हैं ।
  • 3 सैकिंण्ड से ज्यादा किसी सुंदर चीज को देखा तो शरीर में रसायनिक क्रियांयें होने लगती हैं ।
  • सावधान – संसार का फ़र्श चिकना है और उस पर ढ़ेरों केले के छिलके फ़िसलने के लिए पड़े हैं ।
    ( आज का वातावरण चिकना फ़र्श है और छिलके निमित्त जैसे-टी.वी., कम्प्यूटर आदि )

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • पैदा होते समय हर व्यक्ति दिगम्बर ही होता है,
  • बाद में वह पीताम्बर, नीलाम्बर आदि बन जाता है,
    मरते समय भी दिगम्बर ही जाता है,
    क्या इस भाव से आकिंचन्य की भावना हमारे जीवन में नहीं आ सकती?
  • कोई ट्रेन में जा रहा हो, तो क्या वह अकेला होगा?
    शुरु में अपरचित होने की अपेच्छा हां, पर बाद में परिचय होने पर सब अपने लगने लगते हैं,
    पर उनके स्टेशन आने पर , वे उतरते चले जाते हैं,
    उनसे प्रगाढ़ता कर दुखी होना बुद्धिमानी है क्या?
    हम अपने जीवन में प्रगाढ़ता क्यों करें?
  • नानक जी एक बार सामान तोल कर दे रहे थे ।
    जब गिनते-गिनते 13 आया तो उनको लगा मेरा क्या है? सब तेरा ही है और उन्होंने सब माल दे दिया,
    उत्तम आकिंचन्य धर्म भी तेरस की तिथी को ही आता है,
    महावीर भगवान ने भी योग-निरोध (मोक्ष की आखरी प्रकिया) तेरस को ही शुरु किया था ।
  • बच्चे कपड़े बदलते समय बहुत रोते हैं,
    क्या हम उतने ही नादान हैं, कि शरीर रुपी कपड़े बदलते समय रोयें?
  • ऊंचाई पर जाने के लिये भार तो कम करना ही होगा,
    आकिंचन्य धर्म भार से निरभार की, सीमा से असीम की यात्रा है ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • कोई और छुड़ाये उससे पहले खुद छोड़ना त्याग है, न छोड़ना मौत (न छोड़ने पर मौत तो सब कुछ छुड़ा ही लेगी)
  • घर वाले निकालें, उससे पहले खुद ही क्यों न घर छोड़ दें (मौत या सन्यास)
  • पहले अचेतन से संबंध खत्म करें, अपने चेतन से खुद ही जुड़ जायेंगे ।
  • दान-अच्छी वस्तुओं का होता है जैसे-वैभव आदि, त्याग बुरी वस्तुओं का जैसे-राग, विकार आदि।
  • दान में देने और लेने वाले होते हैं, त्याग में सिर्फ़ देने वाला।
  • हमारे नित्यप्रति के पाप कर्मो का ब्याज दान से समाप्त होता है और मूल त्याग से।
  • दान/त्याग तीन प्रकार:-
    (१) राजसिक-अपनी वकत बढ़ाने के लिए।
    (२) तामसिक – बदला लेने की भावना से जैसे-रावण ने किया था।
    (३) सात्त्विक – राग से विराग की यात्रा।
  • सांस लेने से पहले सांस छोड़ना जरुरी होता है, याने त्याग हमारा स्वभाव है।
  • भगवान की मूर्ति भी शिला में से पत्थर छुड़ा-छुड़ा कर बनती है, जोड़ने से नहीं।
  • छोड़ना बाह्य प्रकिया है, त्याग आंतरिक।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • दानी का सम्मान होता है, त्यागी पूजा जाता है,
    दान में बदले का भाव होता है, त्याग में नहीं,
    दान ऊपर से होता है जैसे पेड़ों की छटनी, ताकि पेड़ और बढ़ें, त्याग जड़ से होता है ।
  • दानी फल देने वाले पेड़ की तरह दूसरों को भी देता है और गिरे हुये फलों से खाद बनाकर अपना भविष्य और अच्छा कर लेता है, कंजूस आलू के पौधे जैसा जमा ही करता रहता है, जिसे चोर आदि पूरा नष्ट कर देते हैं ।
  • त्यागी मंदिर के शिखर जैसा होता है जिस पर कर्म के पक्षी नहीं बैठ पाते ।
  • औषधि, अभय , आहार और ज्ञान दान के बदले में लेने का भाव नहीं रहता ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • कल के संयम धर्म में इच्छाओं को कम करने का प्रयास था,
    आज के धर्म में इच्छाओं का पूर्ण निरोध करना है ।
    संयम में मन को मोड़ना था, तप में मरोड़ना/निचोड़ना है ।
    संयम 144 धारा है, तप कर्फ़्यु है ।
  • तप कठिन नहीं है, यदि मन स्वीकार कर ले तो ।
  • परिग्रह की निवृत्ति तप है, परिग्रह की प्रवृत्ति संसार ।
  • समुद्र में एक कचड़ा भी लहरों के द्वारा बहुत दूर तक चला जाता है ।
    लहर रूपी इच्छाओं को रोक दो, ताकि कचड़ा अपने अंदर ना जा सके ।
  • सामर्थ्य हम सब में है, जैसे हर लकड़ी में आग होती है, रगड़ने से निकलती है ।
    संसार में जितनी सामर्थ्य लगाते हैं, उतनी ही धर्म में क्यों नहीं लगा सकते ?
  • सिनेमा में एक सीन दिखाने के लिये सैकड़ों निगेटिव बनते हैं, वे एक से दिखते हुये भी थोड़े-थोड़े अलग होते हैं ।
    मन के भाव भी थोड़े-थोड़े Change होते हुये प्रेम के सीन से कत्ल के सीन तक जा सकते हैं ।
    इसलिये हर समय सावधान रहें, छोटे- छोटे भावों को भी लगातार संभालते रहें  ।
  • नेता, समाजसुधारक और साधक सभी मेहनत करते हैं ।
    प्राय: नेता अपनी Publicity के लिये, समाजसुधारक मन के संतोष के लिये,
    पर साधक आत्मकल्याण और मोक्ष प्राप्ति के लिये मेहनत करते हैं ।
  • श्री भरत ने 48 मिनिट से भी कम में, श्री बाहुबली ने 1 साल में तथा श्री आदिनाथ भगवान ने 1 हजार साल तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया था ।
    क्योंकि श्री भरत ने पिछले जन्मों में अपना घड़ा मोक्ष में कारणभूत कर्मों से ज्यादा भर लिया था, श्री बाहुबली ने कम और श्री आदिनाथ ने और कम,
    इसलिये इस जन्म में घड़े को पूरा भरने में उनको अलग-अलग समय लगा ।                           हम भी जल्दी-जल्दी जब तक सामर्थ है, अपना घड़ा अधिक से अधिक भर लें ।
  • तप 2 प्रकार के हैं – अंतरंग और बाह्य ।
    जैसे अनशन – कर्मों की आत्मा से अनबन को दूर करने के लिये ।
    ऊनोदर – Full Diet   32 ग्रास की होती है, इसे धीरे धीरे कम करना ।
    विविक्तशय्यासन – एकांत में सोना क्योंकि कर्मों से अकेले ही तो लड़ना होगा ।
    विनय – मोक्षमार्ग की चाबी गुरू के पास ही होती है और उसे विनय से ही प्राप्त किया जा सकता है ।
    ध्यान – आखरी तप. ग्यारह तप की घाटियों को प्राप्त करने के बाद परम अवस्था ।
  • मोक्ष की यात्रा गिद्ध से सिद्ध बनने की है ।
    धर्मात्मा से अंतरात्मा और फिर परमात्मा बनने की है ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

संयम
  • सत्य धर्म की सजावट संयम से ही है ।
    शराबखाने में बैठकर दूध पीने वाला भी बदनाम होता है ।
  • एक मकान में आग लग गई । पत्नी ने पड़ोसियों की सहायता से सारा माल बाहर निकाल लिया । बाद में ध्यान आया कि पति तो अंदर ही रह गया ।
    हम भी कषाय की आग से अपने शरीर रूपी माल को तो बचाने की कोशिश कर रहे हैं पर आत्मा रूपी मालिक अंदर जल रहा है ।
  • बीमारियां हमें संयम की ओर जाने की प्रेरणा देती हैं ।
  • संयम Government Stamp है, जो सादा कागज को नोट बनाकर मूल्यवान बना देता है ।
  • संयम रखने के तरीके –
    1. वस्तुओं को देखने से इच्छा जाग्रत होती है और उससे विषय कषाय पूरे शरीर में फैलती है ।
    इच्छा की पूर्ति ,और-और असंयम पैदा करती है ।
    2. ध्यान रहे – मौत का भरोसा नहीं ।
    ड़ाक्टर के Declare करने पर कि अमुक वस्तु नहीं छोड़ी तो मर जाओगे, हम उन वस्तुओं को छूते भी नहीं हैं । यही मौत की कल्पना यदि हर समय हमारे दिमाग में रहे तो हम असंयमित जीवन जियेंगे क्या ?
    3. कदम-कदम पर पाप हैं ।
    महावीर भगवान ने कहा है – हर क्षेत्र में सावधानी बरतें ।
    चलें तो चार हाथ आगे जमीन देखकर,
    बैठें तो किसी को Objection ना हो, मुद्रा सही हो,
    सोयें तो घोड़े बेचकर नहीं, सीधा सोने से संकल्प-विकल्प ज्यादा आते हैं, उल्टा सोने से विषय-भोग के सपने, धनुषाकार जाग्रत अवस्था में सोयें ।
    खाना –
    क्या ? – शुद्ध खायें ।
    कब ? – जब भूख लगे तब, दिन में खायें ।
    कितना ? – भूख से कम  ।
    पर हर समय जानवरों की तरह नहीं । दबा दबा कर नहीं वरना दवाखाना जाना होगा ।
    क्यों ? – जीने के लिये, खाने के लिये नहीं ।
    कैसे ? – गृहस्थ लोग बैठकर, भगवान का नाम लेकर, शांति से ।
    मुनि खड़े होकर, क्योंकि जब तक खड़े होने की शक्ति है सिर्फ तभी तक उन्हें आहार लेना है ।
                                                                                                                                              कैसे बोलें ?  – हितमित प्रिय वचन बोलें ।
    कौये के बोलने पर पत्थर पड़ते हैं,
    कोयल छिप छिपकर बोलती है, फिर भी लोग उसे देखना चाहते हैं ।
  • संयम Balance है ।
    दो पहिये की साइकिल जो खड़ी भी नहीं हो पाती है, Balancing से चलती भी है और मंज़िल तक पहुंचती भी है ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • चारों कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) के समाप्त करने पर ही प्रकट होता है,
    अन्यथा लाग-लपेट आ ही जाती है ।
  • आज का धर्म अनाथों का नाथ है, सत्य Ultimate होता है ।
  • सत्य को समझने के लिये गहराई में जाना होता है, ऊपर तो मगरमच्छ रहते हैं, मोती तो नीचे ही मिलते हैं ।
  • एक ज़ज सा. के सामने बहुत पुराना Case आया ।
    जल्दी निपटाने के लिये उन्होंने गुनहगार से कहा – मेरे प्रश्नों के हां या ना में ज़बाब देना ।
    गुनहगार – पहले आप मेरे एक प्रश्न का ज़बाब दें – क्या अब आपने अपनी पत्नि को पीटना बंद कर दिया है ?
    सत्य शब्दों की कैद में दम तोड़ देता है ।
    सत्य तो अभिप्राय और अनुभूति का विषय है ।
  • असत्य सफल होने के लिये सत्य की पोशाक पहन कर आता है ।
  • सत्य 10 प्रकार का है ।
    1. अक्षरात्मक
    2.गणितात्मक – जैसे 2+2 हमेशा ही 4 होंगे ।
    ये दोनौं सत्य जानवरों को नहीं मालूम होते ।
    3. भौगोलिक – जैसे दुनिया गोल है ।
    4. घटनात्मक – जैसे महावीर भगवान ने 2600 साल पहले मोक्ष प्राप्त किया था ।
    5. ऐतिहासिक
    6. जातीय – जैन जाति में पैदा हुये तो उनकी परंपरा को निभाना सत्य है ।
    7. व्यवहारिक – संसार चलाने के लिये ज़रूरत होती है, झूठ होते हुये भी समाज की स्वीकृति मिली हुई है ।
    8. ज्योतिष्क – इसका आगम में वर्णन है । जिसको जितना ज्ञान, उतने प्रतिशत सत्य भविष्यवाणी ।
    9. सैद्धांतिक – जैसे मोक्ष परिग्रह के पूर्ण त्याग से ही होता है ।
    10. आध्यात्मिक – यह गूंगे की मिठास की अनुभुति जैसा है ।
  • एक महिला कब्र को हवा कर रही थी । लोगों ने समझा बहुत पतिव्रता है ।
    पूछने पर पता लगा कि वसीयत में लिखा है कि जब तक कब्र सूख नहीं जाती उसे वसीयत का पैसा नहीं मिलेगा ।
     आंखो से देखा हुआ भी जरूरी नहीं  सत्य ही हो ।
  • सत्य ब्रम्हचारी होता है, इसके संतान नहीं होती, अकेला होता है ।
    झूठ वैसाखी के सहारे चलता है, सत्य अपने पैरों पर ।
  • एक मुलज़िम ज़ज के सामने पेश किया गया ।
    ज़ज ने पूछा – तुमने हिंसा, चोरी, कुशील क्या किया ?
    मुलज़िम ने कहा – कुछ नहीं ।
    फिर पुलिस क्यों पकड़ के लाई  है ?
    ज़बाब – मुझ में एक ही गंदी आदत है, झूठ बोलने की ।
    एक झूठ में सारी बुराईयां निहित हो जाती हैं ।
  • एक बहेलिया ने ज़िंदा चिड़िया का बच्चा हाथ में लेकर गुरू से पूछा –
    चिड़िया ज़िंदा है या मरी हुई ?
    गुरू – मरी हुई ।
  • बहेलिया ने गुरू को गलत सिद्ध करने के लिये हाथ खोला और बच्चे की जान बच गई ।
    किसी के उपकार  में बोला गया झूठ भी सत्य होता है ।
  • तीन प्रकार के लोग होते हैं 
    1. सच से लेना देना नहीं – सामान्य आदमी, सुनते पढ़ते तो हैं पर आचरण में नहीं लाते ।
    2. सत्य से लेना नहीं, पर देना – कुछ पंड़ित/प्रवचनकार ।
    3. सत्य से लेना भी और देना भी – साधू ।
  • 5 दुर्गुणों की वजह से झूठ बोला जाता है –
    1. क्रोध में
    2. लोभ में
    3. ड़र से
    4. हास्य में
    5. ज्यादा बोलने से ।
  • सत्य कड़वा नहीं होता,
    जैसे बुखार आने पर खाना अस्वाद लगता है ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • पवित्रता का नाम शौच है ।
  • एक संत सबको आशीर्वाद देते थे – ‘मनुष्य भव:’।
    पूंछने पर बताया – आकृति तो तुम लोगों की मनुष्य की है पर प्रकृति जानवरों की ।
    अपने समकक्ष को देखकर कुत्ते की तरह भौंकते हो,
    किसी के थोड़ा भी व्यवहार गलत करने पर गधे की तरह लात मारते हो,
    सांप की तरह धन पर कुंड़ली मारे रहते हो,
    बकरी की तरह हर समय मुंह चलता रहता है और ‘मैं मैं’ करते रहते हो,
    चींटी और मधुमक्खी की तरह संकलन करते रहते हो, चाहे दूसरे उसको चुराते रहें ।
    जानवर कभी भगवान नहीं बनते, उन्हें पहले मनुष्य बनना होता है ।
  • बंजर भूमि की पहले सफाई करनी होगी, अंहकार के पत्थर, माया की दीमक, क्रोध के अंगारे और लोभ की गंदगी हटानी होगी, तभी धर्म की फसल लगेगी ।
  • क्रोध दिमाग में रहता है, मान गर्दन में, माया हॄदय में तथा लोभ पेट में जो कभी भरता नहीं है ।
  • इच्छा आसमान जैसी है, दूर से धरती से मिलती हुई दिखाई देती है पर पास जाने पर और दूर हो जाती है ।
  • जितनी भूख उतनी ही खुराक होनी चाहिये थी,
    पर हमारी जितनी खुराक बढ़ती जाती है, हम अपनी भूख उतनी ही बढ़ाते जाते हैं ।
    हम खाना नहीं खा पाते हैं, वैभव के बदले सम्मान खाते रहते हैं ।
    जिस वजह से वैभव आ रहा है, उस पुण्य को बढ़ायें । उससे वैभव की रक्षा होगी, अचानक चले जाने पर शोक नहीं होगा तथा जल्दी ही आवश्यकतानुसार वापस भी आ जायेगा ।
  • कंजूस आदमी को कब्ज जैसा होता है,
    पेट में मैला है पर निकलता नहीं है, उसे बेचैनी रहती है और दु:ख की बदबू भी आती रहती है ।
    इनकी तीन Categories होती हैं –
    1 – मक्खीचूस – ना खाता है, ना खिलाता है ।
    बच्चों के सिर पर हाथ इसलिये फेरता है ताकि वो तेल अपने बालों पर लगा सके ।
    2 – कंजूस – खुद खाता है पर दूसरों को नहीं खिलाता है ।
    हंसता नहीं है वरना व्यवहार करना पड़ेगा ।
    3 – उदार – खाता भी है, खिलाता भी है ।
  • क्रोध बहुत कम समय के लिये आता है,
    मान जब तक माला नहीं पहनाई जाये तबतक रहता है,
    माया जब तक उल्लू सीधा ना हो जाये तब तक,
    पर लोभ जीवन पर्यंत रहता है ।
  • हम’And‘ के चक्कर में ना रहें, ‘End‘ की सोचें ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

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