गांधी जी एक बच्चे के साथ भोजन कर रहे थे ।
बच्चे ने थाली में भोजन छोड़ दिया ।
गांधी जी ने उसकी थाली में से बचा हुआ भोजन खा लिया ।
गांधी जी ने पूछने पर बताया कि मैं झूठा भोजन तो पचा सकता हूँ, पर झूठ नहीं ।

वृक्ष बार बार फल देते हैं,
दान भी बार बार देना चाहिये, जो व्यवहार है ।

व्यवहार बताता है, निश्चय गूंगा होता है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलने वाला मिल जाये, तो रास्ता सरल हो जाता है ।
और यदि रास्ता बताने वाला मिल जाये, तो रास्ता जल्दी कट जाता है ।

गुरू मोक्षमार्ग का ऐसा ही साथी और दिशा-निर्देशक है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • अंत:करण को अंजुली बनाकर के …..
    क्षमा का दान दें ।
श्री नीलेश भैया
  • लंबा है जीवन, गल्तियां अपार !
    आपके पास है क्षमा भाव अपरंपार,
    कर लीजिये विनती स्वीकार !
    क्षमा करें हमें हर बार,
    क्षमावाणी पर्व को करें साकार ।
श्री सौरभ, अंशु, सुकृति & तनुशा जैन
  • भूल होना प्रकृति है,
    मान लेना संस्कृति है,
    सुधार लेना प्रगति है । अंत:करण से क्षमायाचना करते हैं ।

    श्री अरविन्द & निशा बड़जात्या

‘भूल’ से अगर ‘भूल’ हो गयी, तो ‘भूल’ समझकर ‘भूल’ जाना,
मगर ‘भूल – ना’ सिर्फ ‘भूल’ को, ‘भूल’ से हमें मत ‘भूल’ जाना ।
“उत्तम क्षमा”

श्री सुदीप, मनीषा, & मिली

To get and forget is human nature,
To give & forgive is GODLY.
Let’s try to be GODLY.

MICHCHHAMI DUKKADAM.

Sri. Kalpesh

  • क्षमा अंत:करण की उदारता है ।
  • क्षमा सामाजिक और पारिवारिक तौर पर तो बहुत मांगी जाती है, पर असली तो आत्मिक और आंतरिक है ।
  • नींव की मजबूती कलश की शोभा को बढ़ाती है ।
    पर्युषण के 10 धर्म नींव हैं और क्षमा कलश ।
  • क्षमा के ‘क्ष’ शब्द में दो गाँठें होती हैं,
    पहली गाँठ दूसरों से तथा दूसरी स्वंय से ।
    ज्यादा गाँठें, पहचान वालों से ही पड़ती हैं,
    इन गाँठों को खोलना ही क्षमा है ।
  • संस्कृत में ‘क्ष’, ‘क’ और ‘श’ से मिलकर बनता है,
    ‘क’ से कषाय और ‘श’ से शमन,
    तथा ‘मा’ से मान का क्षय ।
  • क्रोध तो फिर भी छोटी बुराई है पर ध्यान रहे – यह बैर की गाँठ में ना परिवर्तित हो जाये ।
  • मच्छर भी खून चूसता है पर उसके मन में कषाय नहीं होती,
    पर जब हम उसे मारते हैं, तो कषाय से ही मारते हैं ।
  • गलती जानबूझ कर भी अपराध है और अनजाने में भी,
    जैसे जानबूझ कर ज़हर खाने में भी मरण तथा अनजाने में भी ।
  • अपने आंगन में, फूल ऐसे खिलायें, जिनसे पड़ौसी को सुगंध आए ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • पांचों इंद्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही उत्तम ब्रम्हचर्य है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

  • मस्तिष्क माचिस की डिब्बी है, घिसने से आग निकलती है, वासना की ओर घिसी तो जंगल के जंगल धू-धू कर जलने लगते हैं ।
    सही दिशा में दीपक जलकर प्रकाश और भगवान की आरती के लिए तैयार हो जाते हैं ।
  • 3 सैकिंण्ड से ज्यादा किसी सुंदर चीज को देखा तो शरीर में रसायनिक क्रियांयें होने लगती हैं ।
  • सावधान – संसार का फ़र्श चिकना है और उस पर ढ़ेरों केले के छिलके फ़िसलने के लिए पड़े हैं ।
    ( आज का वातावरण चिकना फ़र्श है और छिलके निमित्त जैसे-टी.वी., कम्प्यूटर आदि )

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • पैदा होते समय हर व्यक्ति दिगम्बर ही होता है,
  • बाद में वह पीताम्बर, नीलाम्बर आदि बन जाता है,
    मरते समय भी दिगम्बर ही जाता है,
    क्या इस भाव से आकिंचन्य की भावना हमारे जीवन में नहीं आ सकती?
  • कोई ट्रेन में जा रहा हो, तो क्या वह अकेला होगा?
    शुरु में अपरचित होने की अपेच्छा हां, पर बाद में परिचय होने पर सब अपने लगने लगते हैं,
    पर उनके स्टेशन आने पर , वे उतरते चले जाते हैं,
    उनसे प्रगाढ़ता कर दुखी होना बुद्धिमानी है क्या?
    हम अपने जीवन में प्रगाढ़ता क्यों करें?
  • नानक जी एक बार सामान तोल कर दे रहे थे ।
    जब गिनते-गिनते 13 आया तो उनको लगा मेरा क्या है? सब तेरा ही है और उन्होंने सब माल दे दिया,
    उत्तम आकिंचन्य धर्म भी तेरस की तिथी को ही आता है,
    महावीर भगवान ने भी योग-निरोध (मोक्ष की आखरी प्रकिया) तेरस को ही शुरु किया था ।
  • बच्चे कपड़े बदलते समय बहुत रोते हैं,
    क्या हम उतने ही नादान हैं, कि शरीर रुपी कपड़े बदलते समय रोयें?
  • ऊंचाई पर जाने के लिये भार तो कम करना ही होगा,
    आकिंचन्य धर्म भार से निरभार की, सीमा से असीम की यात्रा है ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • कोई और छुड़ाये उससे पहले खुद छोड़ना त्याग है, न छोड़ना मौत (न छोड़ने पर मौत तो सब कुछ छुड़ा ही लेगी)
  • घर वाले निकालें, उससे पहले खुद ही क्यों न घर छोड़ दें (मौत या सन्यास)
  • पहले अचेतन से संबंध खत्म करें, अपने चेतन से खुद ही जुड़ जायेंगे ।
  • दान-अच्छी वस्तुओं का होता है जैसे-वैभव आदि, त्याग बुरी वस्तुओं का जैसे-राग, विकार आदि।
  • दान में देने और लेने वाले होते हैं, त्याग में सिर्फ़ देने वाला।
  • हमारे नित्यप्रति के पाप कर्मो का ब्याज दान से समाप्त होता है और मूल त्याग से।
  • दान/त्याग तीन प्रकार:-
    (१) राजसिक-अपनी वकत बढ़ाने के लिए।
    (२) तामसिक – बदला लेने की भावना से जैसे-रावण ने किया था।
    (३) सात्त्विक – राग से विराग की यात्रा।
  • सांस लेने से पहले सांस छोड़ना जरुरी होता है, याने त्याग हमारा स्वभाव है।
  • भगवान की मूर्ति भी शिला में से पत्थर छुड़ा-छुड़ा कर बनती है, जोड़ने से नहीं।
  • छोड़ना बाह्य प्रकिया है, त्याग आंतरिक।

मुनि श्री सौरभसागर जी

  • दानी का सम्मान होता है, त्यागी पूजा जाता है,
    दान में बदले का भाव होता है, त्याग में नहीं,
    दान ऊपर से होता है जैसे पेड़ों की छटनी, ताकि पेड़ और बढ़ें, त्याग जड़ से होता है ।
  • दानी फल देने वाले पेड़ की तरह दूसरों को भी देता है और गिरे हुये फलों से खाद बनाकर अपना भविष्य और अच्छा कर लेता है, कंजूस आलू के पौधे जैसा जमा ही करता रहता है, जिसे चोर आदि पूरा नष्ट कर देते हैं ।
  • त्यागी मंदिर के शिखर जैसा होता है जिस पर कर्म के पक्षी नहीं बैठ पाते ।
  • औषधि, अभय , आहार और ज्ञान दान के बदले में लेने का भाव नहीं रहता ।

मुनि श्री सौरभसागर जी

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