सिक्कों की आवाज ज्यादा आती है, नोटों की नहीं ।
(धर्मेंद्र)
सिक्कों में भी चांदी के सिक्कों की कम, सोने के सिक्कों की और भी कम ।
श्री लालमणी भाई
बत्तीस दांतों में से एक के गिरते ही जीभ बार-बार उसी पर जाती है ।
हमारा स्वभाव कमी को देखने का ही है |
देवताओं का Roll बैंक मैनेजर जैसा होता है । उनके पास Over Draft की Power होती है, Temporarily वे आपके Account में जो पैसा बाद में आने वाला है, उसे आज दिलवा सकते हैं । आगे की तारीखों में आपके Account में पैसा नहीं आने वाला हो तो वे कुछ नहीं कर सकते । यदि किसी बैंक से आपने Over Draft लिया है तो उसे आपको ब्याज के साथ लौटाना भी पड़ेगा ।
इसमें क्या अक्लमंदी का काम है ? हम क्यों देवताओं की शरण में जायें ?
कैसे भी आज की परेशानियों को हम खुद Manage क्यों नहीं कर लें ?
चिंतन
किसी से प्रभावित मत हो, प्रकाशित हो; ताकि आपके जीवन का अंधकार समाप्त हो जाये ।
शब्द प्रभावित करते हैं ।
आचरण प्रकाशित करता है ।
भगवान हमारे जीवन में तो है पर अनुमान में है, अनुभव में नहीं ।
इसलिये पूजापाठ सब बोझ हैं ।
यात्रा अनुभूति की है ।
बाह्य क्रियायें Car के First Gear जैसी हैं – Starter, यदि Top Gear में इन क्रियायों को शुरू करोगे तो गाड़ी रूक जायेगी, First Gear में तो तीर्थयात्रा आएगी, Second Gear में पूजापाठ आदि और Top Gear में पालती मार कर हाथ पर हाथ रखना है, ध्यान की प्रक्रिया है । जो बोझ नहीं मौज बन जायेगी ।
एक दुःखी आदमी देवता के पास जाकर बहुत दुःखी हुआ, उसकी शिकायत थी कि इस दुनिया में सबसे ज्यादा दुःख मुझे ही क्यों मिले हैं ?
देव ने सलाह दी कि उसके शहर में एक Exhibition होने वाली है जिसमें सब दुःखी लोग अपने अपने दुःखों की पोटलियां लटका देगें और अगले दिन वो पोटलियां Exchange करने का Chance दिया जायेगा । तुम सब से पहले जाकर सबसे छोटी पोटली लेकर चले जाना ।
अगले दिन वह आदमी अपनी ही पोटली उठाकर चला गया ।
हम अपने दुःखों को तो बढ़ाकर और दूसरों को दुःखों को कम करके देखते हैं,
पर Interchange करने को तैयार नहीं होते हैं ।
मुनि श्री क्षमासागर जी
सीता को रिझाने के लिये रावण के सारे प्रयास असफल होने पर मंत्रियों ने सलाह दी – आपको तो बहुरूपणी विद्या आती है, आप राम का रूप रखकर सीता को अपने महल में ले आओ ।
रावण – राम का रूप रखा था, पर जैसे ही मैं राम का रूप रखता हूँ, मेरे भाव ही बदल जाते हैं ।
( प्रो. जया )
नकली रूप रखने से भावों में इतना परिवर्तन ! तो असली रूप वालों के कैसे भाव होते होंगे !
छोड़ना (निवृत्तिआत्मक) आसान है, करना (प्रवृत्तिआत्मक) कठिन है ।
सच्चे उपाय (धर्म) के बिना दुःख कम भी नहीं होते हैं और सहे भी नहीं जाते हैं ।
आचार्य शांतिसागर जी महाराज को आहार देते समय अम्मा जी से कोई त्रुटि हो गई।
प्रायश्चित पूछ्ने पर पंड़ित जी ने बताया तो उन्होंने किसी दुसरे महाराज के एटा आने पर भरी सभा में रोते हुये अपनी गलती स्वीकारी,
सब लोगों ने Criticize भी किया, पर मुनि महाराज ने कहा कि तुम्हारा प्रायश्चित तो हो गया ।
पाप को 10 लोगों को बता दो तो वह कम हो जाता है, ऐसे ही पुण्य को 10 लोगों को बखान करो तो वह भी कम हो जाता है ।
एक आदमी बस में गंदी सीट पर बैठा और पीठ में दर्द कर लिया ।
घर आने पर उसको पूछा – आपने अपनी सीट किसी से बदल क्यों नहीं ली ?
वह बोला – बस में कोई था ही नहीं, बदलता किससे !
मुनि श्री वैराग्यसागर जी
दुःख के लिये रोते तो हैं पर उसे दूर करने का उपाय नहीं करते, जबकि उपाय Available हैं |
हम शरीर के निकट तो हैं पर उससे हमारा परिचय नहीं है ।
हमारा व्यक्तित्व पेट और पेटी बनकर रह गया है, उसी को हमने अपना परिचय मान लिया है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
ईमानदारी की नाव में बेईमानी के छेद करके, नदी पार करना चाहते हैं ।
गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी
कार को इतना तेज मत दौडा़ओ कि Petrol भरवाने का भी समय ना रहे ।
(श्री गौरव)
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