जो सांप जैसा अनिश्चित विहार करे,
जो सिंह जैसी वृत्ति करे,
जिसमें बैल जैसी वफादारी हो,
और जो वायु की तरह निष्कंप हो ।
मेरी द्रष्टि में आपदायें हैं, प्राकृतिक परीक्षायें!
उनसे वही ड़रें जिनकी कच्ची हो शिक्षायें/आस्थायें !
मुनि श्री योगसागर जी
कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वह भी मना ।
मुनि श्री योगसागर जी
आज शक्ति इसलिये क्षीण हो रही है, क्योंकि आजकल ना तो विधि है और ना ही भाव हैं ।
अंधे ने वैद्य से पूछा कि इस समूह में कितने साधू हैं और कितने असाधू ?
वैद्य – आंख की दवा ले लो और खुद देख लो ।
धनतेरस को जैन आगम में धन्य तेरस या ध्यान तेरस भी कहते हैं ।
भगवान महावीर इस दिन तीसरे और चौथे ध्यान में जाने के लिये योग निरोध के लिये चले गये थे। तीन दिन के ध्यान के बाद योग निरोध करते हुये दीपावली के दिन निर्वाण को प्राप्त हुये ।
तभी से यह दिन धन्य तेरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मुनि श्री क्षमासागर जी/पं. रतनलाल बैनाडा जी
धर्म की पहचान, अधर्म पहचानने से होगी ।
अधर्म कम करते जाओ, जीवन में धर्म आता जायेगा ।
अधर्म किसके लिये ?
शरीर के लिये ! जो यहीं ढ़ेर हो जायेगा, उसके लिये ढ़ेर लगाकर छोड़ कर चले जाना चाहते हो !
आचार्य श्री विद्यासागर जी
जो लोग ज्ञान को दूसरे के हाथ के चम्मच से लेते रहते हैं ।
अंत में उनके हाथ सिर्फ़ चम्मच ही रह जाता है ।
(श्री धर्मेंद्र)
( भावार्थ :- दूसरे के हाथ से चम्मच से लेते रहने का मतलब है – खुद ज्ञानार्जन करने का पुरूषार्थ नहीं करते, ज्ञान का मनन, चिंतन नहीं करते तथा चरित्र में उस ज्ञान को नहीं उतारते हैं, ऐसा ज्ञान अंत में उपयोगी नहीं रहता है । )
हम अच्छे इसलिये नहीं हैं क्योंकि दुनिया हमें अच्छा कहती है,
बल्कि इसलिये अच्छे हैं क्योंकि हममें अच्छा बनने की संभावनायें अच्छी हैं ।
चिंतन
जिसका दिमाग (ज्ञान) ज्यादा चलता है, उसके पैर (चारित्र) कम चलते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
महावीर भगवान ने कहा मेरी शरण में नहीं,
अपनी शरण में जा और मेरे जैसा बन जा ।
मंदिर तो न्यायालय हैं जिनमें पाप और पुण्य का Account देखा जाता है ।
तिथियां तो 15 या कम होतीं हैं, पर उन तिथियों में किसी अतिथी के आने या जाने से वे पूज्य हो जातीं हैं ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
निंदा :- सच्चे झूठे दोषों को प्रकट करने की इच्छा ।
परनिंदा :- ईर्ष्यावश की गई निंदा ।
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