कर्म और धर्म कभी विपरीत नहीं होते।
जैसे किये जाते हैं वैसे ही फलित होते हैं।

मुनि श्री अजितसागर जी

(इनके एक से स्वभाव हैं, इसलिये कर्म धर्ममय होने चाहिये)

चिंतन

आग पर तरल पदार्थ डालने से आग बुझ जाती है।
पर इच्छा ऐसी आग है उसमें घी जैसा बहुमूल्य तरल भी (इच्छापूर्ति के लिये) डाला जाय तो इच्छा रूपी अग्नि और-और भड़कती है।

चिंतन

घर साफ़ रखने के लिये पहले गंदगी लाने वाली खिड़कियाँ बंद, तब झाड़ू।
बाधक कारणों को पहले रोकें फिर साध्य पर ध्यान।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

तुम अगर चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे,
बहुत दूर निकल सकते थे।
तुम ठहर गये, लाचार सरोवर की तरह;
तुम यदि नदिया बनते तो कभी समुद्र भी बन सकते थे।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

बेहतर, छिनने पर विश्वास रखें;
(कि) बेहतरीन मिलने वाला है।

जिज्ञासा….पैसे छिन जाने पर क्या बेहतरीन मिलेगा ?… रविकांत
पूर्व में आपने किसी के पैसे छीने होंगे । कर्जा चुक जाना बेहतरीन हुआ न !

स्वभाव – देखना, जानना।
विभाव – बिगड़ना।
इसलिए कहा – देखो, जानो, बिगड़ो मत।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

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