ताकतवर से प्राय: कहते हैं – “एक दिन मेरा भी आयेगा”
यही बात विश्वास के साथ कभी भगवान से कह कर देखो, एक दिन ख़ुद भगवान बन जाओगे।
मुनि श्री विनम्रसागर जी
अच्छा नहीं होता, ज्यादा अच्छा होना भी।
Shakespeare – I always feel happy because I don’t expect anything from anyone.
Before you Speak, Listen.
Before you Write, Think.
Before you Spend, Earn.
Before you Hurt, Feel.
Before you Die. Live.
मंदिर/ दिन में धर्मध्यान, व्यवसाय/ रात में, बेईमानी/ मस्ती ये Balanced Life नहीं कही जा सकती।
धर्म/ ईमानदारी के साथ सीमित Enjoyment Balanced Life कही जानी चाहिये।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
गृहस्थ भरोसे वाला नहीं तो बुरा।
साधु भरोसे वाले नहीं तो अच्छा/ पहुँचा हुआ (कब छोड़कर चल देंगे, पता नहीं)।
चिंतन
चक्की के दो पाट, एक गतिमान दूसरा स्थिर, तभी अनाज पिसता है;
दोनों गतिमान रहेंगे तो कार्य(आटा पिसना) होगा क्या ?
जब मन स्थिर, शरीर गतिमान होगा, तभी सफलता मिलेगी।
(सुरेश)
1) हम गुरु को जितना याद करेंगे, उतने हम महान बनेंगे।
2) गुरु जितना हमें भूलेंगे, उतने वे महान बनेंगे।
मुनि श्री सुधासागर जी
मनुष्य पर्याय इतनी देर को मिलती जैसे लम्बी अंधेरी रात में कुछ क्षणों के लिये बिजली कोंध जाती है। उतनी देर में हमें सुई में धागा पिरोना होगा वरना सुई गुम हो जायेगी।
जब मौत सबको आनी ही है तो प्रभु भक्ति का लाभ ?
मौत रूपी बिल्ली के जबड़े में चूहे भी आते हैं जो तड़प-तड़प कर दर्द सहते हैं तथा उसके अपने बच्चे भी जो बिना तकलीफ के सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाते हैं।
बस प्रभु के बालक बन जाओ, न मौत दर्दनाक होगी तथा बेहतर स्थान पर पहुंचा दिये जाओगे।
(श्रीमति शर्मा – पुणे)
“स्नात” यानि नहाना।
स्नातक “स्नात” शब्द से बना है।
इसीलिये भगवान (अरहंत) को स्नातक कहते हैं, जिन्होंने कर्मों (आत्मा का घात करने वाले) को धो दिया हो।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
3 प्रकार के व्यक्तित्व –
1. भगवान दौड़ायेगा तो दौडुंगा, जो फल देगा खा लूंगा – भाग्यवादी/एकांती।
2. मैं दौडुंगा, जीतुंगा भी – पुरुषार्थवादी/ एकांती।
3. मैं दौडुंगा, फल मेरे हाथ में नहीं – यथार्थवादी/ अनेकांती।
(एकता-पुणे)>
आवश्यकताओं की तरह, नियम भी 3 प्रकार के….
(1) आवश्यक…. Minimum, इतने तो होने ही चाहिये। किसी भी हालात में छोड़ना नहीं।
(2) आरामदायक…. आराम में कमी होने पर नियम तोड़ दिया।
(3) विलासपूर्ण…. नाम/ शौहरत के लिये लेना, थोड़े समय में छोड़ देना।
चिंतन
Ego से झंडा-डंडा, शास्त्र-शस्त्र, बांसुरी-बांस, निर्जरा (कर्म काटना/समाप्त होना) से निकाचित/निद्यत्ति (कर्मों की तीव्र/घातक प्रकृतियाँ) कर्म बन जाते हैं।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
आचार्य श्री विद्यानंद जी के प्रवचनों को सुनने एक संभ्रांत महिला रोजाना आती थीं पर चटाई पर न बैठकर जमीन पर बैठतीं थीं।
कारण :
जब मैं बहुत धनाड्य थी तब घमंड में गुरुओं के पास/ भगवान के मंदिर कभी नहीं जाती थी।
धीरे-धीरे वैभव समाप्त हो गया, साथ-साथ घमंड भी, गुरुओं/ मंदिर में आना शुरू कर दिया।
वैभव भी आ गया पर अब कारों के होने के बावजूद पैदल मंदिर आती हूँ।
चटाई पर न बैठकर जमीन पर बैठती हूँ।
गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी
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