विनोबाभावे जी के घर एक अनाथ बच्चा रहता था।
विनोबा जी की माँ उस बच्चे को गरम और अपने बेटे को ठंडी रोटी देतीं थीं।
कारण ?
माँ… अपने बेटे में मुझे अपना रूप दिखता है, अतिथि बच्चे में अपना स्वरूप।

गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

पूरे सात मिनिट तक अस्पताल का गेट दिखाते रहे। दर्शकों का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। सीन बदला, तो एक बुज़ुर्ग सात मिनिट तक छत देखते रहे।
नर्स, डाक्टर आते-जाते रहे।

तब घोषणा हुई: “आप सात मिनिट तक एक सीन नहीं देख पाये। ऐसे कितने मरीज़ हैं, जो सालों से अंधेरा ही देखते रहते हैं, या एक ही अस्पताल का सीन? उनका दर्द महसूस करें; अपने को भाग्यशाली मानें!”

हर दर्शक की आंखों में आँसू थे। आधे लोगों की, ऐसे मरीज़ों के दुर्भाग्य पर; और शेष की, अपने सौभाग्य को नज़र-अंदाज़ करने पर।

गुणी व्यक्ति ही दूसरे के गुण को पहचान सकता है, गुणहीन नहीं।
बलवान ही दूसरे के बल को पहचानता है, बलहीन नहीं।
बसंत ऋतु आये तो उसे कोयल ही पहचान सकती है, कौआ नहीं।
सिंह के बल को हाथी पहचानता है, चूहा नहीं।

(सुरेश – इंदौर)

किसान ने अपनी लड़की की शादी के लिये शर्त रखी….
मेरे 3 बैल हैं, किसी की भी पूंछ पकड़ कर दिखा दो।
पहला बैल Normal था, पर युवक कमजोर वाले का इंतजार करने लगा।
दूसरा बहुत तगड़ा निकल गया।
तीसरा कमजोर तो था पर उसके पूँछ ही नहीं थी।
पहले अवसर को ही लेने की कोशिश करनी चाहिये।

(एन.सी.जैन)

नित्य मंदिर के दर्शन क्यों ?
1. नित्य स्कूल जाते हैं पढ़ने के लिये, मंदिर जाते हैं अपने को गढ़ने के लिये।
2. जैसे प्रियजन को हृदय में रखने के बावजूद उससे रोजाना मिलकर आनंद आता है, ऐसे ही भगवान के दर्शन से।
3. रोज दर्पण में रूप को देखते हैं, भगवान में अपने स्वरूप को।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

भक्त दीपक, भगवान सूरज;
भक्त भगवान को दीपक कैसे दिखा सकता है ?
दीपक दिखाने की तो उपयोगता नहीं है, पर दीपक से भगवान की आरती तो उतार सकता है ! उतारनी चाहिये भी।

मुनि श्री सुधासागर जी

पहाड़ पर चढ़ते समय गुरु ने शिष्य के सिर पर वज़न रख कर दिया। शिष्य को परेशानी हो रही थी, तब गुरु ने वज़न हटवा दिया।
कारण बताया… हलका होने का महत्व समझाने को वज़न रखवाया था।
सोचो… जब अंतरंग का वज़न हलका हो जायेगा तब कितना अच्छा लगेगा !

आर्यिका श्री दृढ़मति माताजी

कोयल चालाकी से अपने अंडे कौवे के घोंसले में दे देती है। बच्चे निकलने पर कौवा अपने और कोयल के अंडों में फ़र्क नहीं कर पाता। कोयल अपने बच्चों को कौवे से बड़ा करवाती है और उन्हें पहचान कर उड़ा ले जाती है।

हम कोयल हैं या कौवा ?
क्या हम आत्मा और शरीर में भेद कर पाते हैं ??

आचार्य श्री विद्यासागर जी

गृहस्थ और साधु में अंतर

गृहस्थ परिस्थितियों को अपने अनुसार बद‌लने का प्रयास करता रहता है। परिस्थितियां नित नयी बदलती रहती हैं; सो उसके अनुरूप हो नहीं पातीं और वह दु:खी होता रहता है।

साधु अपने को परिस्थितियों के अनुसार बदल लेता है। वह बदलाव को तप मानकर कर्म काटता है और ख़ुश रहता है।

चिंतन

ढोलक ऊपर से ढकी/ सुंदर, अंदर से पोल।
इसीलिये पैरों पर रख कर पीटी जाती है, हालांकि वह बांसुरी आदि वाद्यों से बड़ी व भारी-भरकम होती है।
जबकि बांसुरी फटे बांस सी, हलकी फुलकी, अपने अंदर हवा भी नहीं छुपाती, सरल, मधुर स्वर वाली, इसीलिये होठों पर रखी जाती है।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

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