अनेकांत = सबका स्वागत/ स्वीकार (अपेक्षा सहित)

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

जिसे मरण से भीति नहीं, जन्म से प्रीति नहीं, वही आध्यात्म को पा सकता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

लाठी से सिर फूटता है, पर (सिर्फ) लाठी कभी सिर फोड़ सकती नहीं।
दुःखी कर्मों से होते हैं, पर कर्म दुःखी कर सकते नहीं।
उनके पीछे कोई और रहता है – लाठी के पीछे दुश्मन, कर्म के पीछे हम स्वयं।

मुनि श्री सुधासागर जी

धर्म साता के साथ… पुण्य + साता का बंध
धर्म असाता के साथ… पुण्य + असाता का बंध
अधर्म असाता के साथ… पाप + असाता का बंध
अधर्म साता के साथ… पाप + साता का बंध
जैसा बंध वैसा ही पुण्य/ पाप फल साता/ असाता के साथ मिलेगा।

चिंतन

संस्मरण…
मेरे आँगन में एक अमरूद का पेड़ है।
अचानक उसमें से गंदा-गंदा रस टपकने लगा। दवायें प्रयोग की गयीं पर लाभ नहीं हुआ। तब मैंने प्यार से उस पेड़ पर हाथ फेर कर प्रार्थना की। अगले दिन से आँगन साफ रहने लगा। अब मैं रोज उस पेड़ को प्यार करती हूँ।

परवीन- ग्वालियर

गुरु सिर्फ दर्शन (देखने) की चीज़ नहीं,
उनके दर्शन आत्मदर्शन करने में निमित्त हैं।
जिन लोगों से धर्म की प्रभावना होती है (या धार्मिक आयोजनों से सम्बंधित हों) उनको अधिक समय दिया जाता है।
उनके पुण्य भी सामान्यजन से विशेष/ अधिक होते हैं।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

जरा न चाहूँ *,
अजरामर** बनूँ
नज़र*** चाहूँ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

* वृद्धावस्था
** अजर-अमर
*** गुरु/ भगवान की कृपा-दृष्टि

100 लोगों को सुगंधित पुलाव दिया गया। शैफ ने कहा चावल जैसा एक कंकड़ रह गया है। 1 व्यक्ति को छोड़कर सब डरे-डरे/सावधानीपूर्वक खाते रहे। पुलाव का आनंद भय में खो गया।
कोरोना वही कंकड़ था जो ज्यादातर को जीवन रूपी पुलाव का आनंद नहीं लेने दे रहा था।

(अपूर्व श्री)

देव-दर्शन का मुख्य उद्देश्य ?
प्रसन्नता प्राप्त करना….
1. भगवान सब अभावों में भी प्रसन्न रहते हैं। भगवान की दृष्टि अपने पर रहती है। हम भी अपनी दृष्टि “पर” से हटाकर ही प्रसन्न/ शांत/सुखी रह सकते हैं।
2. नित्य उनके दर्शन करके प्रसन्नता के लिये प्रेरित हो सकते हैं।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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