चार प्रकार के फूल होते हैं…
1) सुंदर और *खुशबूदार ।
2) सुंदर पर खुशबू नहीं ।
3) सुंदर तो नहीं पर खुशबूदार ।
4) सुंदर भी नहीं और खुशबू भी नहीं ।
*खुशबू – गुण ।
प्रश्न यह है कि हम किस तरह के फूल बनना चाहते हैं !
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (3 नवम्बर)
राग —> न रहे* तो रहा न जाए।
द्वेष —> रहे** तो रहा न जाए।
सारे युद्ध राग की वजह से ही हुए हैं। रावण को सीता से राग था इसलिए राम से द्वेष हुआ और युद्ध हुआ।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (27 नवम्बर)
* प्रियजन
** दुश्मन
भगवान और हमारे रंगों में फ़र्क नहीं –> वे भी काले, हम भी।
फ़र्क सिर्फ़ इतना है –> वे ऊपर से काले हैं (पार्श्वनाथ आदि), अंदर से सफेद।
हम ऊपर से सफेद, अंदर से काले।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
एक व्यक्ति 30 तारीख को बहुत रो रहा था।
कारण ?
आज के ही दिन 10 साल पहले मेरे ताऊ जी मरे थे, मुझे एक करोड़ दे कर गए थे। पिछली साल आज ही के दिन पिताजी 2 करोड़ छोड़ कर गए।
क्या आज भी कोई मर गया ?
नहीं, आज कोई नहीं मरा इसीलिए तो रो रहा हूँ।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (24 नवम्बर)
आत्मा में ज्ञान तो सबके है।
पर महत्वपूर्ण है… क्या आपके ज्ञान में आत्मा है ?
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(25 सितम्बर)
देखते-देखते ही वर्ष का आरी महीना दिसंबर आ गया। ऐसे ही देखते-देखते अपने जीवन का अंतिम क्षण आ जाएगा।
जैसे साल भर का लेखा-जोखा आखिरी महीने में देखते हैं ऐसे ही जीवन का लेखा-जोखा(पाप/पुण्य, शुभ/अशुभ कर्म) तैयार किया क्या ?
चिंतन
माँ अपने नालायक बच्चे को ताने मारती है… देख ! पड़ोसी का बच्चा कितना लायक है।
पर जब कुछ देने की बात आती है तो सब कुछ अपने नालायक बच्चे के लिए, लायक पड़ोसी के बच्चे को कुछ भी नहीं।
यह मोह भाव आता कहाँ से है, जो अनंतों को दुखी कर चुका है?
अपने दुर्विचारों से।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(25 नवम्बर)
Antique चीज़ें बहुमूल्य होती हैं।
हमारे शास्त्र तो हजारों वर्ष पुराने हैं। इनका मूल्य तो आँका ही नहीं जा सकता।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (22 नवंबर)
दो प्रकार के लोग
- बंधनीय –> जो बंध को पा रहे हैं जैसे कैदी, बलात सीमा में रखते हैं ताकि अमर्यादित न होने पायें।
- वंदनीय –> वेद* से संबंधित। जो सब आत्माओं में भगवान-आत्मा को देखते हैं।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
* ज्ञान।
इंसान हमेशा तकलीफ में ही सीखता है।
खुशी में तो पुराने सबक भी भूल जाता है।
(रेनू जैन – नया बजार, ग्वालियर)
मनोरंजन में दोष नहीं।
मनोबंधन दोषपूर्ण है। मन बंधना नहीं चाहिये। आदत/ लत न पड़ जाये।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
चारित्र पर किताब बनाना और चारित्र को किताब बनाना – दो अलग बातें हैं।
साधु दूसरी पर काम करता है और श्रावक पहली पर।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी महाराज
बाह्य नियंत्रण (काय, वचन) होने पर ही अंतरंग (मन) नियंत्रित हो सकता है।
यदि माता-पिता घूमने के शौकीन हों तो बच्चा घर में कैसे रह सकता है ?
मुनि श्री मंगलसागर जी
इसी से जान गया मैं कि बख़्त ढलने लगे।
मैं थक के छाँव में बैठा तो पेड़ चलने लगे।
फ़रहत अब्बास शाह
अपने हाथों की लकीरें न बदल पाये कभी, खुशनसीबों से बहुत हाथ मिलाये हमने।
ये कयाम कैसा है राह में
तेरे ज़ौक़-ए-इश्क़ को क्या हुआ;
अभी चार कांटे चुभे नहीं
कि तेरे सब इरादे बदल गए।।
ज़ौक़-ए-इश्क़ : लगाव की ख़ुशी (ब्र. डॉ. नीलेश भैया)
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