मनुष्य पर्याय इतनी देर को मिलती जैसे लम्बी अंधेरी रात में कुछ क्षणों के लिये बिजली कोंध जाती है। उतनी देर में हमें सुई में धागा पिरोना होगा वरना सुई गुम हो जायेगी।
जब मौत सबको आनी ही है तो प्रभु भक्ति का लाभ ?
मौत रूपी बिल्ली के जबड़े में चूहे भी आते हैं जो तड़प-तड़प कर दर्द सहते हैं तथा उसके अपने बच्चे भी जो बिना तकलीफ के सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाते हैं।
बस प्रभु के बालक बन जाओ, न मौत दर्दनाक होगी तथा बेहतर स्थान पर पहुंचा दिये जाओगे।
(श्रीमति शर्मा – पुणे)
“स्नात” यानि नहाना।
स्नातक “स्नात” शब्द से बना है।
इसीलिये भगवान (अरहंत) को स्नातक कहते हैं, जिन्होंने कर्मों (आत्मा का घात करने वाले) को धो दिया हो।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
3 प्रकार के व्यक्तित्व –
1. भगवान दौड़ायेगा तो दौडुंगा, जो फल देगा खा लूंगा – भाग्यवादी/एकांती।
2. मैं दौडुंगा, जीतुंगा भी – पुरुषार्थवादी/ एकांती।
3. मैं दौडुंगा, फल मेरे हाथ में नहीं – यथार्थवादी/ अनेकांती।
(एकता-पुणे)
आवश्यकताओं की तरह, नियम भी 3 प्रकार के….
(1) आवश्यक…. Minimum, इतने तो होने ही चाहिये। किसी भी हालात में छोड़ना नहीं।
(2) आरामदायक…. आराम में कमी होने पर नियम तोड़ दिया।
(3) विलासपूर्ण…. नाम/ शौहरत के लिये लेना, थोड़े समय में छोड़ देना।
चिंतन
Ego से झंडा-डंडा, शास्त्र-शस्त्र, बांसुरी-बांस, निर्जरा (कर्म काटना/समाप्त होना) से निकाचित/निद्यत्ति (कर्मों की तीव्र/घातक प्रकृतियाँ) कर्म बन जाते हैं।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
आचार्य श्री विद्यानंद जी के प्रवचनों को सुनने एक संभ्रांत महिला रोजाना आती थीं पर चटाई पर न बैठकर जमीन पर बैठतीं थीं।
कारण :
जब मैं बहुत धनाड्य थी तब घमंड में गुरुओं के पास/ भगवान के मंदिर कभी नहीं जाती थी।
धीरे-धीरे वैभव समाप्त हो गया, साथ-साथ घमंड भी, गुरुओं/ मंदिर में आना शुरू कर दिया।
वैभव भी आ गया पर अब कारों के होने के बावजूद पैदल मंदिर आती हूँ।
चटाई पर न बैठकर जमीन पर बैठती हूँ।
गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी
जब गरीब तथा अमीर नितांत अकेले पैदा व मरते हैं, कुछ लेकर नहीं आते हैं तो गरीबी/अमीरी के लिए दोषी कौन ?
भगवान को दोष क्यों ?
अपने कृत/ कर्मों को दोषी क्यों नहीं ठहराते !
(धर्मेंद्र)
जीना है तो जीने दें, वरना जीना सम्भव नहीं हो पायेगा।
दूसरे को मारा नहीं सो अहिंसा पर दूसरे को बचाया नहीं तो अहिंसा का पालन नहीं।
गुरुवर मुनि श्री क्षमा सागर जी
अनाज का अकाल होने से मानव समाप्त, संस्कार के अकाल से मानवता समाप्त।
मन में संस्कार हों तब हाथ में माला ना भी हो तो चल जायेगा।
घड़े में पानी हो तो बाहर संकेत दिखते हैं/ स्पर्श करने पर शीतलता महसूस होगी ही।
अंतरंग में गुण/ ज्ञान/ चारित्र हो तो बाह्य में झलकेगा ही।
(विजय कमावत)
(ऐसे ही अवगुण भी बाहर झलकेंगे ही)
क्रिया = जल छानना।
अर्थ-क्रिया = जीवों की रक्षा के भाव से, जल छानना।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
भगवान के ज्ञान को जैसे का तैसा समझना/ समझाना चाहिये।
नमक मिर्च लगाने से भोजन का असली स्वाद/ सत्य समाप्त हो जाता है, स्वास्थ्य/ आत्मा के लिये स्वास्थ्यवर्धक/ कल्याणकारी नहीं रह जाता है।
खोई वस्तु को योग्य स्थान ( जहाँ वस्तु खोई हो) पर ही ढूंढ़ना चाहिये।
यदि वहाँ अंधकार हो तो स्थान को प्रकाशित (ज्ञान) कर लें।
बिगड़े हालातों को सुधारने का भी कारगर उपाय ज्ञान (कर्म-सिद्धांत) ही है।
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