The Thinker* sees the invisible, feels the intangible**, and achieves the impossible.

(J.L.Jain)

(*जैसे भगवान/ Omniscient observer)।
(**जो स्पर्श से जाना न जा सके/ जिसमें रस, रूप, गंध, वर्ण, शब्द, आदि कोई भौतिक गुण न हों)।

पार्किंसंस रोग होने पर हाथ काँपने को रोकने के लिये कहते हैं –> “साधौ”।
चलायमान विचारों को रोकने को साधना कहते हैं।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

शिष्य की शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु ने तीन चीज़ें शिष्य को दीं…
1) दीपक… जो खुद जलता है/ दूसरों को प्रकाश देता है पर अहंकार नहीं करता।
2) सुई… जो खुद उघाड़ी रहती है पर दूसरों को ढकती है/ जोड़ती है।
3) बाल… मृदुता और सरलता का प्रतीक।

आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (3 नवम्बर)

किसी का लोटा आपके पास आने तथा मालिक के द्वारा पहचाने जाने पर लोटा लौटाना त्याग नहीं है।
गरीब को लोटा देना त्याग है। क्योंकि आपने न किसी के डर से, नाही कुछ Return में पाने की भावना से लौटा दिया है।

शांतिपथ प्रदर्थक

ऐसे सचित्त* शब्दों को मत बोलो जिससे दूसरे का चित्त उखड़ जाये।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

*कीड़ों सहित (जहरीले)।

कठिन क्या है धर्म करना या धन कमाना ?
प्राय: उत्तर मिलता है… धर्म करना कठिन है।
पर कभी सोचा ! धन कमाने में कितना दिमाग लगता है, कितनी मायाचारी करनी पड़ती है, कितने अच्छे बुरे लोगों से व्यवहार करना पड़ता है। जबकि धर्म करने वालों में इसका उल्टा होता है।
कारण एक है… जो हम कर लेते हैं वह हमको सरल लगता है जैसे पुरुष बाहर के काम करता है, उसे रोटी बनाना बहुत कठिन लगता है।
धर्म करने की भावना बनते ही आनंद और शांति आने लगती है, करते समय भी, करने के बाद भी बहुत देर तक। क्योंकि यह खुद का काम लगता है।

आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (29 अक्टूबर)

ब्रह्म समाज के संस्थापक श्री रामकृष्ण परमहंस से चिढ़ते थे।
एक दिन बोले –> मैं तुम्हें हराने आया हूँ।
श्री रामकृष्ण लेटकर बोले –> लो मैं हार गया।

ब्र. डॉ. नीलेश भैया

महावीर भगवान के निर्वाण दिवस की बधाई।
…………………….
इंद्रिय नियंत्रण…
राजसिक/ तामसिक भोजन से अपना व सामने वालों का भी नुकसान होता है।
स्वयं का शरीर तथा भाव खराब। दूसरे राजसिक से जलन तथा तामसिक देख कर प्रेरित हो जाते हैं।

मुनि श्री मंगलानंदसागर जी

मान चोट पहुँचाता है, मानी को चोट पहुँचती है।
स्वाभिमान न चोट पहुँचाता है न उसे चोट पहुँचती है क्योंकि वह पद का सम्मान करता/चाहता है, अपना नहीं।
ऐसा कृत्य न करुँ जिससे मेरे पद का अपमान हो जाये, यह स्वाभिमान है।
लोग मुझे मान दें, यह अभिमान है।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

क्या वीतरागता संवेदनहीनता नहीं है ?
संवेदना बाह्य है। गृहस्थ भी बाह्य में रहते हैं, उन्हें संवेदनशील होना चाहिये।
साधु अंतरंगी, उन्हें वीतरागी।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

कुछ दुःख Unavoidable होते हैं जैसे शारीरिक अस्वस्थता, आर्थिक, सामाजिक। पर ज्यादा दुःख Avoidable/ self-created/ हमारा चयन होता है, Actual में वे दुःख होते ही नहीं हैं।
जैसे माँ के 4 पुत्रों में 1 धर्मात्मा, 3 नास्तिक। माँ के निधन पर तीनों ने मिलकर धर्मात्मा को बहुत पीटा।
कारण ?
तू ही मंदिर जाता था, तभी भगवान को याद आ गया कि इनकी माँ तेरे साथ रहती है। उसकी उम्र हो गयी है।

ब्र. डॉ. नीलेश भैया

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