निमित्त तो दियासलाई की काढ़ी के जलने जैसा है: उतने समय में अपना दीपक जला लिया, तो प्रकाशित हो जाओगे; वर्ना गुरु ज़्यादा देर रुकते नहीं हैं। मंदिर में भगवान के दर्शन भी थोड़े समय के लिये ही होते हैं। पूर्णता तो तुम्हें ख़ुद पानी होगी।

मुनि श्री सुधासागर जी

बुरा मत बोलो, देखो, सुनो के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है/दोनों हाथ से मुंह, आंख, कान बंद करने होते हैं।
मुनिराज ने कहा – बस एक उँगली माथे पर रख लो….
“बुरा मत सोचो”, वचन, दृष्टि, श्रवण तीनों नियंत्रित हो जायेंगे।

मुनि श्री महासागर जी

कैसी विडम्बना है कि हम जीवन-पर्यंत अपने आपको उन चीज़ों का ही मालिक मानते हैं, जो हमें बुढ़ापे में सबसे ज़्यादा परेशान करती हैं; हमारी सुनती ही नहीं; हालाँकि वे हैं हमारे सबसे क़रीब: संतान, आंख, पैर, आदि।

मुनि श्री सुधासागर जी

धर्म कहता है – मरने से मत डरना (….मृत्यु आज ही आजाये….) ।
फिर कोरोना से धर्मात्मा क्यों डरता है ?
नियम टूटने से ।
जो मरने से नहीं डरते पर नियम टूटने से डरते हैं, उनके ही चमत्कार घटित होते हैं (….णमोकार मंत्र हमें प्राणों से भी प्यारा….) ।

मुनि श्री सुधासागर जी

सोमवार – सोम (चंद्र) शीतलता;
मंगल – मंगलमय;
बुध – ज्ञान;
गुरुवार – गुरु का दिन;
शुक्रवार – भगवान को शुक्रिया;
शनिवार – शनि पर विजय (क्षमा द्वारा);
रविवार – छुट्टी का दिन (क्रोध की छुट्टी) ।

आर्यिका दृढ़मति माताजी

भोजन के बाद मिष्ठान्न क्यों ?
ताकि भोजन के दौरान मिर्चीला/कषैला स्वाद अगले भोजन तक न बना रहे।

वृद्धावस्था भी जीवन के अंत में आती है – पूरे जीवन की कटुता/द्वेष अगले जीवन में न जाये इसके लिए क्षमा रूपी मिष्ठान का सेवन करें ताकि मीठे स्वाद के साथ अगले जन्म की शुरुआत हो।

चिंतन

शिक्षक ने एक Section में ३० सवाल यह कह कर दिये कि बहुत सरल हैं – सब बच्चों ने सारे ज़बाब सही दिये।
वे ही सवाल दूसरे Section में यह कहकर कि बहुत कठिन है, सिर्फ 3 बच्चे ही सही ज़बाब दे पाये।
सकारात्मकता से आत्मविश्वास बढ़ता है।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

शिक्षा वह, जिसके द्वारा हित (परिवार/समाज/देश/धर्म तथा आत्मा का) का सृजन तथा अहित का विसर्जन हो।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

इसे करते श्रावक हैं पर महत्त्व देखो –
गंधोदक मुनिराज भी शिरोधार्य करते हैं, अभिषेक साधु ख़ुद नहीं कर सकते हैं।
कहते हैं – हनुमान का पत्थर ही तैरता था, राम का नहीं।

मुनि श्री सुधासागर जी

व्याकरण में दो शब्द आते हैं –
आगम – शब्द में अक्षर मिलाने से भाव नहीं बदलते जैसे बाल और बालक।
आदेश – शब्द नहीं बदलता, भाव बदल जाने से आशय बदल जाता है।
आगम मित्रवत होता है (मित्र को किसी भी नाम से बुलाओ, भाव मित्रता का ही रहता है), आदेश शत्रुवत (“तू” सम्बोधन – प्रेम में भी, पर शत्रु के सम्बोधन में क्रोध) ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

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