चंदन के वृक्ष तो बहुत कम हैं/ कम ही बन सकते हैं।
नीम के बन जाओ, औषधि युक्त।
वह भी न बन सको तो जंगली पेड़ ही बन जाना, शीतलता दोगे/भूखे के भोजन बनाने में सहायक होगे।
पर कांटेदार झाड़ी कभी मत बनना।

घटना घटना होती है, उसका सुख-दु:ख से सम्बंध नहीं होता है ।
वरना बड़े बड़े ऑपरेशन हो ही नहीं सकते थे ।
ऐनसथिसिया देकर दर्द के दु:ख को चेतना/दिमाग/मन से अलग करके बिना दर्द/दु:ख के ऑपरेशन कर दिये जाते हैं ।
हम अन्य घटनाओं से मन/दिमाग हटा लें तो दु:ख भी नहीं होगा ।

आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

किसी के पीछे ज्यादा नहीं पड़ना चाहिये –
इसका एक भव सुधारने के लिये अपने भव-भवांतर क्यों बिगाड़ना चाहते हो !
झगड़ा न करें पर Compromise भी ना करें।

मुनि श्री सुधासागर जी

दूध, दही, मक्खन व घी का जन्म एक ही कुल में, पर कीमत अलग अलग।
कारण ?
श्रेष्ठता कुल में पैदा होने से नहीं बल्कि सद्कर्मों/स्थिरता तथा तपने से आती है।

(सुरेश)

पूजा गुणानुवाद है, भक्ति गुणानुराग – भगवान/गुरु व उनके गुणों से।
भक्ति श्रद्धा का बाह्य रूप है पर इससे आंतरिक प्रेम उत्पन्न करता है।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

जो कर्मसिद्धांत पर विश्वास करते हैं, उन्हें पुनर्जन्म पर विश्वास करना ही होगा।
वरना इस जन्म के अंत समयों में किये गये कर्मों का फल कब और किस जन्म में भोगोगे ?

चिंतन

पनही* पशु के होत हैं, नर के कछू नहीं होत।
नर यदि नर-करनी करे, तब नारायन होत।

*जूता (पशु की खाल का)

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

एक सूर्य का प्रकाश है जो सदैव एक सा रहता है जैसे भगवान का ज्ञान।
दूसरा सूर्य के आगे आये बादलों से छन कर आया प्रकाश है, जो कम ज्यादा होता रहता है जैसे विज्ञान का।
ऐसे ही दोनों ज्ञानों में फ़र्क जानना।

चिंतन

इस काल में तो मुक्ति नहीं, तो धर्म क्यों करें ?
लाइन में तो लग लें !
पर लाइन में लग कर क्या करोगे, जब खिड़की बंद है !
दोषों/ दुर्बलताओं/ आकुलताओं से मुक्त्ति तो आज भी है,
धर्म प्रलोभन के लिये नहीं, आत्मकल्याण के लिये करें।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

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