सोने से बेहतर है, गहना बनना।
पर उसमें तो अशुद्धि मिलाई जाती है ?
पर थोड़ी अशुद्धि के साथ उसकी उपयोगिता भी तो बढ़ जाती है;
वह अशुद्धि भी तप के द्वारा सोने जैसी हो जाती है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
“प्रार्थना” से ज्यादा “आभार” प्रकट करना कारगर होता है।
प्रार्थना में नकारात्मकता/दीनता है/ अपने व्यक्तित्व को गिराना है/ अवसर कभी-कभी आते हैं, जब आप मुसीबत में फंस गये हों/ कर्म सिद्धांत पर विश्वास कम होता है/ अपने और अपनों के लिये होती है। आभार में ये सब नहीं है।
चिंतन
जिनसे मेरे कर्म कटें वे मेरे शत्रु कैसे !
जिनसे मेरे कर्म बंधे वे मेरे मित्र कैसे !!
आचार्य श्री विद्यासागर जी
खेल में हार न हो, सिर्फ जीत ही जीत हो तो खेल का आनंद क्या!
जीवन का आनंद लेना है तो हार को भी स्वीकारना होगा।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
संसार में अगली अगली कक्षाओं में ज्ञान तो बढ़ता जाता है पर विषय (विषय भोग) गहरे होते जाते हैं ।
धर्म में ज्ञान बढ़े या न बढ़े पर विषय हल्के होते जाते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते,
विषयाः सुलभा अपि।
– इष्टोपदेश (आचार्य पूज्यपाद स्वामी)
जैसे-जैसे चेतना में उत्तम तत्वज्ञान समाविष्ट होता है, वैसे-वैसे सुलभ विषयभोग भी अरुचिकर होते जाते हैं।
(कमल कांत)
जीवन एक ऐसा सफ़र है कि मंज़िल पर पहुँचा तो मंज़िल ही बढ़ा दी – यही पतन का कारण है।
क्या करें ?
उन इच्छाओं का ध्यान करो जब पुण्य सबसे कम थे, इच्छाओं को बार-बार बदलो मत/ बढ़ाओ मत।
मुनि श्री सुधासागर जी
जीने की बात आती है तो पहले ख़ुद जीने को कहा, फिर दूसरों को (जियो और जीने दो) ।
मरने के विषय में ख़ुद को नित्य तीन बार शरीर को जलाया जाता है (ध्यान में) पर दूसरों के शरीर को चिंगारी छुलाने की कल्पना भी नहीं की जाती।
चिंतन
मूर्ति से वीतरागता मिलती है और चरण से शक्त्ति (निर्वाण/मोक्ष जाने के प्रतीक)|
मुनि श्री सुधासागर जी
आज संकट(कौरोना)के समय में मंदिरों के दरवाजे क्यों बंद हैं ?
क्योंकि मंदिरों में रोने वाले उन्हें अपवित्र कर रहे थे।
ऐसे ही सूतक के समय मंदिरों में जाने/वहाँ पूजादि करने का निषेध है।
सुख में तो होटलों में जाते थे !
मुनि श्री सुधासागर जी
सूरज के उगने/अस्त होने को Sun का Birth/Death नहीं कहते बल्कि Sun-Rise/Set कहते हैं।
आत्मा के आने और जाने को Rise/Set क्यों नहीं !
उसको Birth/Death क्यों कहते हैं !!
आचार्य श्री विद्यासागर जी
(जबकि जीवन भी सूरज की तरह एक जगह अंत/set होते ही अन्य जगह पर rise हो जाता है)
क्या करना ! रामायण से सीखें : भ्रातृ प्रेम;
क्या नहीं करना ! महाभारत से सीखें : भ्रातृ द्वेष ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
हम बाहर की क्रियाओं को बहुत महत्त्वपूर्ण देते हैं जैसे कोयल की आवाज,
हालांकि हम यह भी नहीं जानते कि वह क्यों और क्या बोल रही है!
जब कि हमें अपनी अंतरंग भावनाओं को ज्यादा महत्त्व देना चाहिए।
चिंतन
दु:ख से ऊबकर लिया गया वैराग्य टिकता नहीं।
(क्योंकि पुण्य आकर्षित करता रहता है-गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी)
टिकाऊ वैराग्य लेना है/प्रगति करनी है तो पुण्य से ऊबो/ज्यादा कमाई से ऊबो।
मुनि श्री सुधासागर जी
पुरुषार्थ रूपी हनुमान ही, शांति रूपा सीता को आत्मा राम से मिला सकते हैं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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