सम्बंध शौक नहीं, मजबूरी है, संसारी जीवों के लिये ।
जब मजबूरी है तो झुककर निभाओ भी ।
सम्बंध जब टूटते हैं तो बैर बन जाते हैं ।
सम्बंध न बनें तो रोना, बन जाय तो रोना ।
मुनि श्री सुधासागर जी
मुनि श्री प्रमाणसागर ने किसी विषय पर आचार्यश्री से कहा – “ये मन को अच्छा नहीं लग रहा”
आचार्यश्री – मैने दीक्षा आत्मा को अच्छा बनाने को दी है न कि मन को अच्छा लगने को ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
संसार में ठगा, धर्म में आता है, धर्म में ठगा कहाँ जायेगा ?
लौकिक में ठगा धनादि खोता है पर अलौकिक जन्मजन्मान्तर खो देता है ।
तो क्या करें ?
या तो ख़ुद को सही की पहचान करने का ज्ञान हो वरना सच्चे गुरु के दिशा निर्देश में चलो ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
वासना का सम्बंध न तन से है न वसन* से,
अपितु माया से प्रभावित मन से है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
* पोशाक
आचार्य श्री विद्यासागर जी का स्वास्थ अच्छा नहीं था ।
मुनिजन वैय्यावृत्ति कर रहे थे । आचार्य श्री दीवार से पीठ टिकाये बैठे थे ।
पीठ पर वैय्यावृत्ति करने का विनय पूर्ण तरीका निकाला – ब्रह्मचारी भैया ! ज़रा दीवार पीछे खिसका देना ताकि हम पीठ की वैय्यावृत्ति कर लें ।
आचार्य श्री आगे खिसक गये – लो दीवार पीछे हो गयी ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
वैराग्य भाव आये पर संसारियों के साथ रहने की मजबूरी हो तो संसारियों को पता मत लगने देना वरना वे रहना दुश्वार कर देंगे ।
मुनि श्री सुधासागर जी
ध्यान आत्मा पर लगायें, शरीर पर नहीं ।
कारण ?
ध्यान एक पर केन्द्रित किया जाता है, आत्मा एक है, शरीर के अनेक अंग तथा शरीर पर ध्यान जाते ही उसके अनेक रोगों पर ध्यान चला जायेगा, आत्मा में तो रोग होते ही नहीं ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
प्रतिकार करना है तो सुख का करो, वरना सुविधाओं के आश्रित हो जाओगे ।
जिन्होंने किया, वे महान/ साधु/ भगवान बन गये जैसे राम/महावीर भगवान ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
जज सुनते ज्यादा हैं, बोलते कम, भेद-विज्ञान लगाकर सत्य पकड़ते हैं ।
फांसी का निर्णय देने के बाद कलम तोड़ देते हैं – अहिंसा का प्रतीक ।
वकील बोलते ही रहते हैं, सुनते कम हैं क्योंकि असत्य को छुपाना चाहते हैं ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
क्रियात्मक प्रवृत्ति तथा भावात्मक निवृत्ति को छोड़कर जो बचा, वह ध्यान कहलाता है ।
चिंतन
कार्य की सिद्धि के लिये पहले सम्बोधन करना चाहिये,
जैसे…
“बेटा ! ये काम कर दो” ।
इससे सकारात्मकता भी आयेगी ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
जीवन की सारी दौड़ केवल अतिरिक्त के लिए है !
अतिरिक्त पैसा,
अतिरिक्त पहचान,
अतिरिक्त शौहरत,
अतिरिक्त प्रतिष्ठा !
यदि यह अतिरिक्त पाने की लालसा ना हो तो ….
जीवन कितना सरल हो जाय !
घोड़े के दो मालिक होते हैं – एक रईस*, दूसरा – सईस** ।
हम अपने शरीर रूपी घोड़े के कौन से मालिक हैं ?
मुनि श्री महासागर जी
* लगाम अपने हाथ में रखने वाला
** सेवा करने वाला
पसीना दो तरह का –
1. कसरत करने से शरीर के लिये लाभदायक ।
2. तप करने से आत्मा के लिये लाभदायक ।
चिंतन
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