पतली पगंडडी पर दो बकरियां आमने-सामने आ गयीं ।
एक बैठ गयी, दूसरी उसके ऊपर से निकल गयी ।
वरना एक या दोनों गिरतीं/गिराईं जातीं ।

मुनि श्री सुधासागर जी


संघ की आर्यिका माताओं के दीक्षा-दिवस पर आर्यिका विज्ञानमति माता जी अपनी दीक्षा के समय के भावों को व्यक्त करते हुए कहा… “उस समय मुझे लग रहा था कि मेरी वृद्धावस्था सी आ गयी है । संयम तो 8 वर्ष पर लेना चाहिए था । 14 वर्ष असंयम में बिगाड़ दिये ।”

समय से पहले फल चखने का भाव न करें ।
क्योंकि अधपका फल स्वादिष्ट नहीं, स्वास्थ्यवर्धक भी नहीं तथा उसमें हिंसा (जीवराशि) ज्यादा ।
ताप (तप) से पकाने पर लाभदायक ।
(इसीलिये जबलपुर के अस्पताल का नाम “पूर्णायु” रक्खा है)

आचार्य श्री विद्यासागर जी

धर्म-यात्रा में संतोष नहीं करना, वरना प्रगति रुक जायेगी ।
पर असंतोष भी नहीं, वरना निरूत्साहित हो जाओगे/दु:खी होओगे, जिससे कर्मबंध होगा ।
जैसी स्थिति ऊंचे पहाड़ पर चढ़ते समय आधी चढ़ायी के बाद होती है ।

चिंतन

आचार्य श्री विद्यासागर जी का बुखार उपचार करने पर भी कई दिनों से उतर नहीं रहा था ।
उनके गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने उन्हें अपने कमरे में सुलाया ।
अगले दिन से बुखार नहीं आया ।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

वक़्त-वक़्त पर* उन्हें न भूलें…
1) जिनसे बचना है
2) जिनसे संरक्षण होता है
3) जो हमारी प्रगति में बाधक हैं

* वक़्त-वक़्त पर – मौका/परीक्षा आने पर

आचार्य श्री विद्यासागर जी

दौड़-धूप, यानि धूप में दौड़ना ।
धूप होती है सीमेंट के जंगलों में ।
गांवों में सुकून है, वहाँ किसान संग्रह के पीछे नहीं भागता, संग्रह करेगा तो नाश हो जायेगा (अनाज सड़ जायेगा) ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

चढ़ता सूरज सुंदर लगता है ।
दोपहर का तेजस्वी/पसीना निकाल देता है/उसके सामने सब सिर झुकाते हैं ।
शाम को भाव होते हैं – “डूब मरो”

श्री लालमणी भाई-चिंतन*

* ख़ुद की ढलती उम्र में

राजा को चंदन की लकड़ी में, रंक को कंडों में जलाया जाता है ।
पर दोनों की राख एक सी, न चंदन वाली में सुगंध, न ही कंडों वाली में दुर्गंध ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

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