अव्यवस्थित –
व्यवस्थित –
कौन सा पसंद आया ?
आप कौन से हैं ?
आशिस् = कल्याण
वाद = कथन
आशीः + वाद = आशीर्वाद
ज्ञान का अजीर्ण, घमंड ।
तप का क्रोध ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
पहले गुरुकुल (गुरु के कुल) में जाते थे, वैसे ही संस्कार पाते थे ।
आज स्कूल (ईशु के कुल) में जाते हैं, संस्कार कैसे पा रहे हैं !
हथेली तब भी छोटी थी,
हथेली अब भी छोटी है,
पहले खुशियां बटोरने में, चीजें छूट जातीं थीं ,
अब चीजें बटोरने में खुशियां, छूट जातीं हैं !
(सुरेश)
🍃🌸🍃🌸🍃🌸
मौत के डर से ही सही,…..
ज़िन्दगी को फुर्सत तो मिली…..
सड़कों को राहत…….
और घरों को रौनक तो मिली….
प्रकृति, तेरा रूठना भी ज़रूरी था…
इंसान का घमंड टूटना भी ज़रूरी था..
हर कोई ख़ुद को ख़ुदा समझ बैठा था..
ये शक दूर होना भी ज़रुरी था..!
🍃🌸🍃🌸🍃🌸
जानवर दूसरों के बच्चों का निवाला छीनकर अपने बच्चों को नहीं खिलाते। हिंसक जानवर भी एक जानवर को मार कर कई दिनों तक शिकार नहीं करते।
सिर्फ़ आदमी ज़िंदगी भर सुबह से शाम दूसरों का निवाला छीन-छीन कर अपना तथा अपने बच्चों का भरण-पोषण करता है।
चिंतन
मुझे कहाँ मालूम था कि …
सुख और उम्र की आपस में बनती नहीं…
कड़ी मेहनत के बाद सुख को घर ले आया..
तो उम्र नाराज़ होकर चली गई…
(सुरेश)
किसी को रोकने के 2 प्रकार –
1. समझाने से
2. मिट* जाने से
मुनि श्री सुधासागर जी
* या तो ख़ुद के मिटने के बाद या समझाने वाले के मिटने के बाद ।
भले ही दूर,
निकट भेज देता,
अपनापन ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
कर्मोदय… बिल से निकला हुआ सांप है; छेड़ा, तो डसा !
शरीर पर से निकल रहा हो, तो भी शांति से निकलने देना, वरना लेने के देने पड़ जायेंगे !
चिंतन
जो दौड़-दौड़ कर भी नहीं मिलता, वह संसार है;
जो बिना दौड़े मिलता है, वह भगवान है ।
(सुरेश)
भगवान को कर्ता मानने वाले कहते हैं – “ऊपर वाला पांसा फेंके, नीचे चलते दांव”,
कर्मों पर विश्वासी कहते हैं – “अंदर वाला पांसा फेंके, बाहर चलते दांव ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
हम भगवान के अंश नहीं हैं, ना ही भगवान के बाइ-प्राॅडक्ट हैं। बल्कि भगवान बनने का जो कच्चामाल होता है, वह हैं ।
बस, परिष्कार करना है, सांचे में ढालना है, ख़ुद भगवान बन जायेंगे ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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