अपेक्षा परावलम्बी, इच्छा स्वावलम्बी।
इच्छा में अपेक्षा का होना हानिकारक।
श्रद्धा में अपेक्षा/ इच्छा नहीं, इसलिये लाभकारी।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

परमात्मा बनने की विधि….
गुणवानों का गुणगान करने से खुद गुणवान बनेंगे तब धर्म जीवन में आएगा, धर्मात्मा हो जाएंगे। फिर पुण्यात्मा और उससे बन जाएंगे परमात्मा।
इसके लिए पहले साफ सफाई करनी होती है अंतरंग की फिर उसकी सुरक्षा के उपाय।
जितना बड़ा मेहमान आता है या जितना बड़ा बनना होता है, उतनी ज्यादा सफाई और सुरक्षा का इंतजाम करना पड़ता है।

मुनि श्री सौम्य सागर जी- 10 फरवरी

हम मकान क्यों/ कब छोड़ते हैं ?

  1. Contract की अवधि पूरी होने पर।
  2. समय पूरा होने से पहले मकान जीर्ण-शीर्ण हो जाय।

आत्मा भी शरीर को इन दो परिस्थितियों में ही छोड़ती है।

चिंतन

कर्म के उदय को स्वीकार करना ही अध्यात्मविद्या है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी (मुनि श्री अक्षयसागर जी)

धर्म 2 प्रकार का –
व्यक्ति सापेक्ष → सब अपने-अपने भावों को परिष्कृत करते हैं।
वस्तु सापेक्ष → वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

एक समृद्ध गुरुकुल खुला। जो भी पढ़ने आता उससे एक ही प्रश्न किया जाता – “तुम कौन हो ?”
बच्चे नाम बताते।
योग्य नहीं हो।
कुछ जबाब बदल देते –> मैं आत्मा हूँ।
तुम तो और अधिक गलत हो, पहले वाले अनुभव पर तो आधारित थे।
सालों बाद एक ने जबाब दिया –> “यही जानने तो यहाँ आया हूँ ।”
सालों तक गुरुकुल में यही एक विद्यार्थी रहा।

ब्र. (डॉ.) नीलेश भैया

दो प्रकार की अनुकम्पा –>

  • सामान्यजन के प्रति अनुकम्पा।
  • साधुजन के प्रति अनुकम्पा।
    इसमें विशेष पुण्य/ लाभ मिलेगा। Feeling विशेष होगी क्योंकि Object Higher Quality का होता है। इसमें सावधानी कि घटना ही न घटे जबकि सामान्यजन पर अनुकम्पा, घटना घटित होने के बाद में की जाती है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र – 6/12)

मोह ऐसा है जैसे मरुस्थल में सावन तो आया (दिखता/ लगता) पर पतझड़ न गया (आत्मा से मोह)।
इनके पेड़ों पर सुख/ शांति के फल कैसे लग सकते हैं!

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी

सबसे कम शब्दों/ समय में सुख की परिभाषा बता दें।
गुरु मौन हो गये। थोड़ी देर बैठ कर जिज्ञासु चला गया।
अगले दिन आभार प्रकट करने आया।
आज परिभाषा समझ कर (कि हड़बड़ी में सुख नहीं मिलेगा/ इंद्रियाँ शांत हों तब सुख मिलेगा) अनुभूति करने आया हूँ।
इंद्रिय सुख से बड़ा आत्मिक सुख होता है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

“परिहार” के दो अर्थ होते हैं एक ग्रहण करना, दूसरा छोड़ना।
ग्रहण कर्त्तव्य का, छोड़ना अकर्त्तव्य का;
और इन दोनों के होने से बनता है चरित्र।


आचार्य श्री विद्यासागर जी (स्वाध्याय श्री भगवती आराधना- भाग 1, पृष्ठ 92,93)
सान्निध्य आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी

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