Category: अगला-कदम
स्वरूप / लक्षण
स्वरूप त्रैकालिक। जीव का स्वरूप – स्वाभाविक → मूर्तिक/ अमूर्तिक, संकोच/ विस्तार वाला। वैभाविक → परिणमन के साथ। लक्षण → उपयोगो लक्षणम्। लक्षण जो स्वरूप
सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन अकेला भी हो सकता है यदि अक्षर श्रुत ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम ना हो तो। आचार्य श्री विद्यासागरजी (भगवती आराधना भाग 1,गाथा 3,पेज 42) स्वाध्याय
शुद्धोपयोग
श्री समयसार जी/ प्रवचनसार जी के अनुसार चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं होता है। श्रावकों को तो पर-द्रव्य के निमित्त से ही धर्मध्यान हो सकता
निधत्ति / निकाचित
एक मत के अनुसार कर्मों के निधत्ति और निकाचित गुण देवदर्शन से समाप्त हो जाते हैं; दूसरे मत के अनुसार आठवें गुणस्थान में। वस्तुत: यह
सम्बंध
दो प्रकार का सम्बंध – 1. संयोग द्रव्य – द्रव्य साथ रहकर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं जैसे दूध और पानी। 2. समवाय द्रव्य
नित्य
हर पदार्थ में उत्पाद/ व्यय हो रहा है तो नित्य कैसे ? क्योंकि हर पदार्थ में – “यह वही है” बना रहता है। यही ध्रौव्यगुण/
सम्यग्दर्शन
तत्त्वों के अर्थ तो अलग-अलग ले सकते/ लिये जाते हैं। इसलिये प्रयोजनभूत तत्त्वों के सम्यक् अर्थ पर श्रद्धान से सम्यग्दर्शन कहा है। मुनि श्री मंगल
भाव / चरण / करण
भाव प्रधानता – 1 से 4 गुणस्थान में। चरण प्रधानता – 5 से 7 प्रवृत्त्यात्मक। चरण + करण प्रधानता – 7 गुणस्थान में। करण प्रधानता
मोक्ष
मोक्ष शुभ रूप है, शुभ के अंतिम रूप को शुद्ध कहते हैं, पुण्य रूप है (क्योंकि आज भी पुण्यबंध में कारण है)। मुनि श्री प्रणम्यसागर
द्रव्य
द्रव्य में गुण तथा पर्याय, ज्ञान की पहुँच पर्याय तक, भावात्मक गुण तक पहुँच नहीं। अर्थ-पर्याय पर भी पहुँच नहीं। व्यंजन पर्याय दो तरह से
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