Category: अगला-कदम
पुदगल-परावर्तन
नोकर्म-बंध के हेतु – शरीर/प्रियजन। कर्म-बंध तो भीतर चल रहा है। नोकर्म-बंध टूटे तो कर्म-बंध टूटे, कर्म-बंध टूटे तो नोकर्म-बंध छूटे। इस तरह पुदगल-परावर्तन दो
कर्मों का प्रभाव
निमित्तों और नोकर्मों से बचने पर, कर्मों का प्रभाव कम हो जाता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी
सामायिक
रोजाना दिन में 3-3 बार एक सी बातों को दोहराना, क्योंकि राग ज्यादा है । पर पर्याय को विषय न बनायें क्योंकि पर्याय तो अस्थिर
महास्कंध
सब प्रकार के स्कंधों का समूह, महास्कंध कहलाता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
ईर्यापथ आश्रव
ईर्या = गमन = आना जाना कर्मों का (आत्म प्रदेशों से) क्योंकि आत्मा में चिकनापन (कषाय) नहीं है। पथ = रास्ता, पर शुभ-कर्मों और नोकर्मों
संसारी/मुक्त जीव
“संसारिण: मुक्ता: च” – तत्त्वार्थ-सूत्र – 2/10 इस सूत्र में “संसारी” पहले लिया, हालाँकि “मुक्त” ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, कारण – 1. मुक्त संसार से ही
शरीरों की वर्गणाऐं
यद्यपि सामान्य रूप से औदारिक, वैक्रियक व आहारक शरीरों का आहार वर्गणाओं से ही निर्माण कहा गया है। पर वास्तव में तीनों की वर्गणायें अलग-अलग
ज्ञान / दर्शन
अनध्यवसायी = व्यवसाय नहीं – दर्शनोपयोग। सत्य/असत्य, धर्म/अधर्म में भेद नहीं करता दर्शनोपयोग, बस वस्तु का एहसास कराता है। इससे हमारा काम नहीं चलेगा, इसलिये
मिथ्यात्व
व्रती A.C.आदि का प्रयोग करें तो गुणस्थान गिरेगा ? क्या व्रती मिथ्यात्व में चला जायेगा ? शारीरिक अस्वस्थता के कारण, यदाकदा, व्रतों में दोष मानकर
निदान-ध्यान
5वें गुणस्थानवर्ती तक के गृहस्थ सांसारिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिये ध्यान करते हैं, पर 6वें गुणस्थान व आगे के मुनियोंकी सांसारिक इच्छायें समाप्त हो
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