Category: अगला-कदम
शरीरों की वर्गणाऐं
यद्यपि सामान्य रूप से औदारिक, वैक्रियक व आहारक शरीरों का आहार वर्गणाओं से ही निर्माण कहा गया है। पर वास्तव में तीनों की वर्गणायें अलग-अलग
ज्ञान / दर्शन
अनध्यवसायी = व्यवसाय नहीं – दर्शनोपयोग। सत्य/असत्य, धर्म/अधर्म में भेद नहीं करता दर्शनोपयोग, बस वस्तु का एहसास कराता है। इससे हमारा काम नहीं चलेगा, इसलिये
मिथ्यात्व
व्रती A.C.आदि का प्रयोग करें तो गुणस्थान गिरेगा ? क्या व्रती मिथ्यात्व में चला जायेगा ? शारीरिक अस्वस्थता के कारण, यदाकदा, व्रतों में दोष मानकर
निदान-ध्यान
5वें गुणस्थानवर्ती तक के गृहस्थ सांसारिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिये ध्यान करते हैं, पर 6वें गुणस्थान व आगे के मुनियोंकी सांसारिक इच्छायें समाप्त हो
उपशम/क्षायिक सम्यग्दर्शन
दोनों सम्यग्दर्शनों में 7 प्रकृतियों का उदय नहीं है पर विशुद्धता में बहुत फर्क है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि 3 या 4 भवों में मोक्ष जबकि
पाप / पुण्य
पाप-कर्म भी पुण्य के उदय में ही होते हैं। जैसे 7वें नरक जाने के लिये, वज्रवृषभ-नाराच-संहनन चाहिये, जो बड़े पुण्य से ही मिलता है। मुनि
उपादान / निमित्त
साधारण/आम लोग निमित्त के अनुसार परिणमन करते हैं। महावीर भगवान ने कहा – उपादान की त्रैकालिक शक्त्ति पहचानो, उसे अभ्यास और विशुद्धता बढ़ा कर ऐसा
अगुरुलघु
अगुरुलघु – 1. सामान्य गुण – जीव तथा अजीव में, ख़ुद के गुण कम न हों, अन्य के गुण आयें नहीं। 2. गोत्र कर्म के
मद
सम्यग्दर्शन में मलिनता युद्ध/हिंसा से नहीं, बल्कि मद से आती है। (आचार्य समंतभद्र स्वामी) मुनि श्री सुधासागर जी
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