Category: अगला-कदम

केवल ज्ञानी

हुंडक संस्थान का उदय 14वें गुणस्थान तक रहता है। सामान्य केवलज्ञानी के दाढ़ी मूंछें यथावत् रहती हैं। शलाका पुरुषों के दाढ़ी मूंछें नहीं होतीं, तीर्थंकरों

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लेश्या काल

जघन्य काल -> शुभ/ अशुभ -> अंतर्मुहूर्त। उत्कृष्ट काल –> अशुभ -> कृष्ण -> 33 सागर, नील -> 17, कापोत -> 7 सागर (2 अंतर्मुहूर्त

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16 बार स्त्री

अधिकतम 2000 सागर की त्रस पर्यायों में 16-16 बार स्त्री, पुरुष, नपुंसक बनने की यह उत्कृष्ट सीमा है। 16, 16 बार बनना ही पड़ेगा, ऐसा

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सम्यग्दर्शन

सम्यग्दर्शन के लिये → 1. सगारो यानी साकार उपयोग (जो साकार को ग्रहण करे = ज्ञानोपयोग)। 2. जागरुक (5 निद्राओं में निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि अजागरुक)।

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पदार्थ

मुख्य रूप से → जीव, अजीव। इनके दो-दो भेद → पुण्य व पाप प्रकार के। पुण्य जीव रूप → सम्यग्दृष्टि/ पुण्य में प्रवृत्ति करे। पाप

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आयुबंध

आयुबंध सातवें गुणस्थान में नहीं होता। लेकिन आयुबंध यदि निचले गुणस्थान में शुरू हो गया हो और इसी बीच सातवाँ गुणस्थान प्राप्त हो जाय, तो

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केवली के प्राण / इन्द्रियां / पर्याप्तियां

सयोग केवली के क्षयोपशम भाव का अभाव होने से भावेन्द्रियां नहीं होतीं। पर्याप्तियां द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा से जानें। प्राण 4( श्वासोच्छवास, आयु, वचन, काय), अयोग

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निमित्त नैमित्तिक संबंध

सूर्य के निमित्त से मैं गरम होता हूँ, पर गर्मी मेरी है। यह निमित्त नैमित्तिक संबंध से हुआ, हैं दोनों स्वतंत्र। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर

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करण और भाव

तीन करण… मिथ्यादृष्टि के भी होते हैं जब वह सम्यग्दर्शन के सम्मुख खड़ा होता है। तब औदयिक भाव होते हैं। श्रेणी मांडते समय आदि छह

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ईर्यापथ आस्रव

एक समय की स्थिति का निवर्तक ईर्यापथ कर्मबंध अनुभाग सहित है ही। इसी कारण से ईर्यापथ कर्म स्थिति और अनुभाग की अपेक्षा अल्प है। एस.के.जैन

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मंगल आशीष

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