Category: अगला-कदम
संज्ञी
यदि कोई जीव संज्ञी बनने जा रहा है तो विग्रह-गति तथा अपर्याप्तक अवस्था में कहलायेगा तो संज्ञी पर बनेगा तब जब पर्याप्तक हो जायेगा। पं.
बंध
कर्म-बंध के समय अलग अलग कर्म प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग अलग अलग बंधेगा । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
अनुबंध
पापानुबंधी/पुण्यानुबंधी का निर्णय कर्मबंध के समय ही तय हो जाता है – कि उदय के समय यह पाप का अनुबंध करेगा या पुण्य का ।
तप
अविरत सम्यग्दृष्टि का तप भी महान उपकारी नहीं होता है । क्योंकि वह मोक्ष नहीं दिला सकता है । मिथ्यादृष्टि कुतप से 12 वें स्वर्ग
सिद्धों के भोगादि
भोग/उपभोग नोकर्माश्रित/शरीराश्रित होते हैं । सिद्धों में भोगादि शक्ति रूप ही होते हैं । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
बंध / सत्व / उदय
उदय में सत्व है भी और नहीं भी । बंध और उदय एक साथ नहीं होते । उदय पूर्वक ही क्षय होता है जैसे मतिपूर्वक
अकाल मरण
6 गुणस्थान के ऊपर आयुकर्म की उदीरणा नहीं होती । मुनि श्री सुधासागर जी
भोगोपभोग-परिमाण-व्रत
परिग्रहाणुव्रत तो पहले ही होता है, भोगोपभोग-परिमाण-व्रत में रोज़ाना भोग/उपभोग की सीमा बनाता है । पाठशाला
गुणस्थान
1 से 4 इंद्रिय का उदय दूसरे गुणस्थान तक यानि 2 गुणस्थान में मरकर जीव 1 से 4 इंद्रियों में जन्म ले सकता है ।
कर्म बंध
जो कर्म-सिद्धांत पर विश्वास नहीं करते उनके कर्मबंध, सम्यग्दृष्टि से बहुत ज्यादा होता है (सम्यग्दृष्टि के तो अंत: कोड़ा कोड़ी के बंधते हैं) । मुनि
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