Category: अगला-कदम
असंख्यातगुणी निर्जरा
असंख्यातगुणी निर्जरा यानि दूसरे समय की निर्जरा, समय से पहले असंख्यातगुणी निर्जरा । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
बंध
मोह (दर्शन मोहनीय से मिथ्यात्व, चारित्र मोहनीय से अविरति, प्रमाद, कषाय) तथा योग से ही बंध होता है । पाठशाला
बंध
एक भेद है – “अनादि वैस्रिसिक* बंध” धर्म, अधर्म और आकाश, तीनों का परस्पर संबंध । कालाणुओं का भी ऐसा ही बंध है क्योंकि उनका
कर्म/नोकर्म
कर्म – आत्मा के योग परिणामों के द्वारा किया जाता है । नोकर्म – कर्म के उदय से होने वाले औदारिक आदि रूप पुदगल परिणाम, जो
परमाणु में गमन
मंदगति से परमाणु एक समय में – एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक गमन करता है तथा तीव्र गति से एक समय में चौदह राजू
मन:पर्यय ज्ञान
मन के आलम्बन से जाना जाता है तो मतिज्ञान क्यों नहीं कहा ? चंद्रमा को देखने आकाश की साधारण अपेक्षा होती है, पर है तो
सम्मूर्छन जन्म
इस तरह से मनुष्य पुरूषों के कान/नाक के मैल में भी जन्म लेते हैं । पाठशाला
आहार संज्ञा
स्वर्ग और नरक में भोजन/मिट्टी बहुत बहुत काल के बाद खायी जाती है, तो आहार संज्ञा हर समय कैसे ? आहार संज्ञा छ्ठवें गुणस्थान तक
असिद्धत्व
अनादि कर्मबद्ध आत्मा के 10 वें गुणस्थान तक आठों कर्मों के उदय से असिद्ध पर्याय होती है । 11, 12 वें में मोहनीय के अलावा
लेश्या
सब जीवों की द्रव्यलेश्या विग्रहगति में शुक्ल ही होती है । अपर्याप्त अवस्था में कपोत । भाव लेश्या छहों हो सकतीं हैं । पं. रतनलाल
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