संसार व परमार्थ में प्रगति के लिये हर क्षेत्र में भेद-विज्ञान ज़रूरी है..
1.हर कार्य के लिये कालों का निश्चय करना।
2.क्षेत्रों में भेद…कहाँ क्या कार्य करना।
3.हर इंद्रिय का विभाजन…जैसे आँख को क्या देखना, क्या नहीं।
4.कपड़ों में भेद…अवसर के अनुसार।
5.वस्तुओं में विवेक… मेरी/ परायी, हितकारी/ अहितकारी।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

हिंदु मान्यतानुसार राजा सगर के पुत्रों की भस्म से उन्हें जीवित करने के लिये भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतारा। उनके पीछे मुड़कर देखने से गंगा Divert हो गयीं। तब उन्होंने भस्म ले जाकर गंगा में डाली। जब से ये प्रथा हिंदुओं में शुरू हुई।
(आजकल पर्यावरण को ध्यान में रखकर ये प्रथा कम हो रही है।
हड्डी के फूलों को खाकर मछली आदि भी मर जाती हैं)

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

आत्मा की सबसे बड़ी निधियाँ हैं – स्वाधीनता, सरलता और समता भाव।
इन्हें अपन को ग्रहण करना है, Develop करना है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

यदि चावल और कंकड़ में भेद नहीं किया तो दांत टूट जायेंगे।
(हित/ अहित, शरीर/ आत्मा में भेद नहीं किया तो जीवन टूट जायेगा)

आचार्य श्री विद्यासागर जी

एक बार परम पूज्य मुनि गुरुवर श्री क्षमासागर महाराज जी की अस्वस्थ अवस्था में किसी ने पूछा कि आप इतनी वेदना कैसे सहन कर लेते हैं ?
तब महाराज जी ने कहा कि हमारी पीड़ा तो हमारे मुख पर आपको दिख जाती है। आचार्य महाराज जी तो अपनी पीड़ा किसी की नज़र तक में नहीं आने देते।
(यही अंत तक देखा भी गया)

जिनवाणी माँ हमें समझा रही है कि कब तक चारों गतियों में जन्म मरण करते रहोगे ?
अन्य पदार्थों की चाह में यह भ्रमण अनंत काल से चला आ रहा है और चलता ही रहेगा, यदि इस त्रासदी को नहीं रोका तो।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

तप से/ताप (गर्मी) से हम बहुत घबराते हैं। जबकि ताप के बिना न अनाजादि पैदा होगा, ना ही उसे पचा (जठराग्नि) पायेंगे।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(जैसे ताप/ गर्मी शरीर के लिए आवश्यक है,
ऐसे ही तप आत्मा के लिए)

अपरिचित से ज्यादा परिचित से बचो।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(अपरिचित से तो सावधान रहते हैं, परिचित से नहीं तथा मोह में भ्रमित भी रहते हैं)

क्षु.जिनेन्द्र वर्णी जी आचार्य श्री के सानिध्य में सल्लेखना ले रहे थे। एक बार आचार्य श्री को सम्बोधन करने में देरी हो गयी।
तब वर्णी जी बोले – आचार्य श्री आप मुझे छोड़ कर मत जाना।
आचार्य श्री – सल्लेखना तो स्वयं ली जाती है, किसी के सहारे से नहीं।
यही आचार्य श्री ने स्वयं करके दिखा दिया, किसी को पता ही नहीं कि सल्लेखना शुरु हो गयी है। अंत में जब अंतिम सांसें गिन रहे थे तब पता लगा कि वे तो सल्लेखना पहले ही ले चुके हैं।

1. वेग – काम करने की गति सामान्य/ कुछ अधिक।
2. आवेग – व्यक्ति के भावों में उछाल आता रहता है।
3. उद्वेग – उद्वलित/ क्रोधित/ बेचैन रहता है।
तीनों में शांति क्रमशः अशांति में बढ़ती हुई।
4. संवेग – अशांत को शांत कर देता है। कर्तव्य करता है, फल भाग्य पर छोड़ देता है। धार्मिक प्रकृति वाला।

प. पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी के अंतिम 3 प्रवचनों से साभार

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