स्थान तथा रूप परिवर्तन ही कार्य होता है।

क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी

दो प्रकार का…
1. आत्मा का स्वभाव… फलों को खाकर दयापूर्वक गुठली बो देना।
2. वस्तु का स्वभाव…..फलों के पेड़ फल पैदा करते हैं अपनी संतति बढ़ाने।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

रिक्त को भरने की मनाही नहीं, अतिरिक्त में दोष है।
फिर चाहे वह भोजन हो या धन।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(आचार्य श्री की कला …रिक्त को अतिरिक्त से भर देते हैं)

5 पाप बीमारियां हैं। 4 (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील) के तो लक्षण दिखते हैं/ इलाज सम्भव है, पर परिग्रह के लक्षण अंतरंग हैं, बाहर से कोई इलाज नहीं कर सकता।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

बीमार व्यक्ति को गुरु सम्बोधन करने गये। वहाँ कुर्सी रखी थी (व्यक्ति के भगवान के लिये)। वह भगवान को कुर्सी पर कल्पना में विराजमान करके उनसे बातें करता था। गुरु ऐसी श्रद्धा देख खुद प्रेरित हो गये।

(एन. सी. जैन – नोयडा)

पंडित विशेषण है, वाचक है। जबकि विद्वान ज्ञानवाचक, उनके लिये “विद्वत श्री” शब्द प्रयोग करना चाहिये, जिसमें सम्मान भी है तथा ज्ञानी होने का प्रतीक। “पंडित” तो मुनियों के आगे लगाना चाहिये। उनके मरण को भी “पंडित-मरण” कहा जाता है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

मशीन जब खराब/ पुरानी हो जाती है तो आवाज करने लगती है।

मुनि श्री सुप्रभसागर जी

(हम यदि हित, मित, प्रिय नहीं बोल रहे हैं तो हमारी मशीन क्या कहलायेगी? )

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