धार्मिक ज्ञान की उपयोगिता वैसी ही है जैसी शुरू में पढ़ी गणित की इंजीनियरिंग आदि में।
1. धार्मिक ज्ञान से जीवों का पता लगता उनकी रक्षा का भाव व रक्षा कर पाते हैं।
2. जब आत्मलीनता से बाहर आयें तब अनात्म में लिप्त न हों।
3. परिणामों में निर्मलता/ विशुद्धि।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

(हर्ष/ विषाद में समान्य भाव लाने में बहुत कारगर)

कठोरता से निर्माण, मृदुलता से कल्याण।
जैसे फोड़े को फोड़ते कठोरता से, उपचार मृदुलता से।
अपना फोड़ा फोड़ो, दूसरे पर मलहम लगाओ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

मैं खोज रहा था प्रभु को वे खोज रहे थे मुझे। अचानक एक दिन मिल गए।
न मैं झुका, न वे झुके। न वे बड़े थे, न मैं लघु था।
एक आवरण मुझे उनसे विभक्त किए था, वह हटा और मैं भगवान बन गया।
अपने से नाता जोड़ लो फिर किसी और को खोजने की जरूरत नहीं।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

तीर्थयात्रा से लौटने पर कहा गया… आपके जाने से सूना हो गया था।
भगवान के जाने पर मंदिर सूने नहीं हुए। क्योंकि वहाँ भगवान के बिम्ब के अभाव में उनका प्रतिबिम्ब बना लिया। मेरे अभाव में मेरे द्वारा जो शुभ क्रिया होती हैं उनका प्रतिबिम्ब यदि बना लें/ वही काम(स्वाध्याय) आप या कोई और करने लगे, तो सूनापन नहीं लगेगा।

चिंतन

दहला देता था वीरों को, जिनका एक इशारा;
जिनकी उंगली पर नचता था, ये भूमंडल सारा।
कल तक थे जो वीर, धीर, रणधीर अमर सैनानी;
मरते वक्त न पाया उनने, चुल्लू भर भी पानी।।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

चक्रवर्तियों का अंत भी दुखद देखा गया है।
जानवर पालना आसान है, मुगालता पालना कठिन।
आज पुण्य के उदय से निरोगी काया है, माया, कुलवंती नारी, पुत्र आज्ञाकारी है, पर ये हमेशा नहीं बने रहेंगे।
कुटुम्बादि आसाता का उपाय – शब्दों/ वचन का वास्तु ठीक करने से सब ठीक हो जाता है।

मुनि श्री विनम्रसागर जी

छूटने की कल्पना से ही भय होता है, वैभव/ शरीर/ प्रियजनों के छूटने का भय।
यदि इन सबको नश्वर मान लो और आत्मा को अनश्वर तो भय समाप्त।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

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