आचार्य श्री विद्यासागर जी से पूछा मोक्षमार्ग कैसा है ?
आचार्य श्री… मोक्षमार्ग टेढ़ा-मेढ़ा है।
फिर मोक्ष जाने के लिए कौन सा मार्ग पकड़ें ?
जिस मार्ग से आए हो उस पर मत जाना। उसके विपरीत मोक्ष मार्ग है।
ब्र.दीपक भैया संघस्थ आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (22 दिसम्बर ’24)
आँखों में पड़ेगा जाला, नाकों से बहेगा नाला, लाठी से पड़ेगा पाला, कानों में पड़ेगा ताला।
तब तू क्या करेगा लाला ?
आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (22 दिसम्बर ’24)
यदि दु:ख में भगवान याद आते हैं तो इसमें अचरज क्या !
चकोर को भी चंद्रमा अंधेरी रात में ही अच्छा लगता है।
स्वाध्याय सान्निध्य आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी
(षटशती-श्र्लोक-88; आचार्य श्री विद्यासागर जी)
ध्यानस्थ…
भौंरे को फूल पर गुनगुनाते समय पराग का स्वाद नहीं आता। जब स्वाद लेता है तब गुनगुनाता नहीं।
ब्र. प्रदीप पियूष
हम भी गृहस्थी में भिनभिनाते हैं, धर्म में आकर गुनगुनाते हैं फिर ध्यानस्थ हो आत्मा का रसपान कर सकते हैं।
चिंतन
काँटा लगना पूर्व के कर्मों से (तथा वर्तमान की लापरवाही से)।
लेकिन रोना/ न रोना पुरुषार्थ का विषय।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
हर केंद्र की परिधि होती है।
और हमारी ?
परिधि वृत्ताकार होती है, किन्तु हम डर कर या रागवश एक दिशा के क्षेत्र को सिकोड़ लेते हैं और द्वेषादि के क्षेत्र को बढ़ा लेते हैं।
वस्तुओं के साथ ऐसा नहीं है; पुराना मोरपंख किताब में वहीं मिलता है, जहाँ वह रखा गया था।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
गृहस्थ जीवन जीते हुए साधना कैसे करें ?
तुलाराम व्यापारी सामान तौलते समय दृष्टि तराजू पर रखता था। जब तराजू समानांतर हो जाती थी तब तक दृष्टि में न प्रिय होता था, न दुश्मन।
समता भाव से ही तराजू समानांतर होगी।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
निद्रा आने पर ग्लानि का भी भाव रहता है।
जैसे निद्रा आने पर मनपसंद भोजन, प्रिय बच्चों में भी रुचि नहीं रहती।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
भाग्य के प्रकार –>
1. सौभाग्य – श्रावक (अच्छे परिवार में जन्मा)।
2. अहोभाग्य – श्रमण (मुनि/ साधु), जिन्होंने सौभाग्य को Encash कर लिया।
3. दुर्भाग्य – श्रावक/ श्रमण Encash न कर पायें ।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
अभिमान में-> मैं बड़ा – मैं बड़ा।
मायाचारी में-> तू बड़ा – तू बड़ा।
लक्ष्य……….-> बड़ा मानना।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (9 दिसम्बर)
“G” से Generator,
“O” से Operator,
“D” से Destroyer,
अपने लिये मैं खुद तीनों हूँ।
मुनि श्री मंगलसागर जी
प्रायः सुनते हैं –> “बच्चों के लिये जी रहे हैं।“
यानी पराश्रित/ चिंतित –> रोगों को निमंत्रण।
सही –> अपने लिये जी रहे हैं –> निश्चितता/ निरोगी।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
खाली कमरा बड़ा दिखने लगता है, किसी (वस्तु) से टकराव नहीं।
कमरा, कमरा बन जाता है।
(ज्यादा सामान भरने से कमरे का महत्व समाप्त हो जाता है)
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
प्रभु के रोज़ दर्शन करते हैं। उनसे जुड़ क्यों नहीं पाते जबकि संसारियों से तुरंत जुड़ जाते हैं।
कारण ?
मोह और अभिमान।
मोह से संसार छूट नहीं पाता, अहम्, अर्हम् से मिलने नहीं देता।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (8 नवम्बर)
Pages
CATEGORIES
- 2010
- 2011
- 2012
- 2013
- 2014
- 2015
- 2016
- 2017
- 2018
- 2019
- 2020
- 2021
- 2022
- 2023
- News
- Quotation
- Story
- संस्मरण-आचार्य श्री विद्यासागर
- संस्मरण – अन्य
- संस्मरण – मुनि श्री क्षमासागर
- वचनामृत-आचार्य श्री विद्यासागर
- वचनामृत – मुनि श्री क्षमासागर
- वचनामृत – अन्य
- प्रश्न-उत्तर
- पहला कदम
- डायरी
- चिंतन
- आध्यात्मिक भजन
- अगला-कदम
Categories
- 2010
- 2011
- 2012
- 2013
- 2014
- 2015
- 2016
- 2017
- 2018
- 2019
- 2020
- 2021
- 2022
- 2023
- News
- Quotation
- Story
- Uncategorized
- अगला-कदम
- आध्यात्मिक भजन
- गुरु
- गुरु
- चिंतन
- डायरी
- पहला कदम
- प्रश्न-उत्तर
- वचनामृत – अन्य
- वचनामृत – मुनि श्री क्षमासागर
- वचनामृत-आचार्य श्री विद्यासागर
- संस्मरण – मुनि श्री क्षमासागर
- संस्मरण – अन्य
- संस्मरण-आचार्य श्री विद्यासागर
- संस्मरण-आचार्य श्री विद्यासागर
Recent Comments