स्वर्ण में चकाचौंध नहीं, नकली ज्यादा चमकीला होता है। ऐसे ही सही मायने में बड़े/ ऋद्धिधारी सहज होते हैं।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(फिर हम विशेष के चक्कर में क्यों ?
सामान्य रहेंगे तो एक दिन विशेष भी बन जाएंगे। पर विशेष के चक्कर में न सहज ही रह पाएंगे, नाही विशेष हो पाएंगे)
फौज में सारे विशेषज्ञ “साधारण(General)” के नीचे ही काम करते हैं।

(चिंतन)

संयम फूल है, ब्रह्मचर्य फल।
आजकल ब्रह्मचारी तो भ्रम है, आदर्श देखना है ब्रह्मचारी नीलेश भैया को देखें।
क्षमा मांगनी है तो अपनी वासना से मांगो, जहाँ पाप पनप रहे हैं।
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डूबो मत, लगाओ डुबकी…आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज।
डूबना परवश, उभरना नहीं। डुबकी स्ववश, उभरना भी।
ब्रह्मा सृजन कर्ता, मैं भी सृजन कर्ता।
ब्रह्म भाव…गृहस्थों का…आत्मीय व्यवहार,
साधुओं का भगवत् व्यवहार, यह ब्रह्मचर्य है/ सुखानुभव है।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डाॅ नीलेश भैया

मेरे काॅलिज के समय मेरी बुआ जी ने ब्रह्मचर्य व्रत लिया था।
ब्रह्मचर्य क्या होता है ?
समझाने बुआजी ने एक ओर मुझे बैठाया दुसरी ओर फूफा जी बैठे थे। बुआ जी ने दोनों पर हाथ रखते हुए कहा …जिस दिन दोनों हाथों की संवेदनायें एकसी हो जायेंगी तब ब्रह्मचर्य कहा जायेगा।

गुरुवर मुनि श्री क्षमा सागर जी

आकिंचन्य यानी किंचित भी मेरा नहीं। सत्य को सत्य स्वीकारना।
इसमें कुछ करना नहीं है। राग द्वेष से मुक्ति का नाम आकिंचन्य है।
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ज्यों की त्यों धरदीनी चुनरिया। वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव…
1) सब मेरा ही तो विस्तार है, चाहे इस जन्म का या पिछलों का
2) क्या लेके आया था क्या लेके जाउँगा ! शरीर भी मैंने यहीं आकर माँ के पेट में बनाया था। जो आज मेरा है कल किसी और का हो जायेगा तो चुनरिया मैली करने का हक मुझे नहीं।
मेरे होने का अर्थ है कि मैं कुछ हूँ नहीं।
उम्रे दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गये दो इंतज़ार में, बचा आकिंचन्य।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

त्याग पूर्ण का, साधुओं के द्वारा। दान आंशिक, गृहस्थों द्वारा। क्योंकि उनसे घर के कामों में हिंसा/ पाप हो ही जाती है। उसके प्रक्षालन के लिए 10, 16, 25% दान करने को कहा है।
दान चार प्रकार के…आहार, औषधि, अभय और ज्ञान।
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प्रवृत्तियाँ…1) परिग्रह…दान का महत्व समझ कर भी न देना। बच्चा बोला देखकर, अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान!
2) संग्रह…समविभाग दान करना। मुकुट झुकने लगें जब, त्याग दो अधिकार सारे। तुम तो ढ़ोने वाले हो, लेने वाले का पुण्य है।
3) परस्परोपग्रहो जीवानाम…जो करोगे वह लौट कर ब्याज सहित मिलेगा ही।
4) वसुधैव कुटुम्बकम्…तब देना तो अपने ही परिजनों को हुआ न !

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

घी दूध को तपाने पर प्राप्त होता है, हलकी-हलकी आग, सुपात्र(मिट्टी) में तपाने से ज्यादा तथा सुगन्धित घी मिलता है।
ऐसे ही नर से नारायण बनने धीरे-धीरे तप बढ़ाना तथा सुपात्र का निमित्त पाना होगा।
जब तक तप न कर पायें, तब तक मानवता प्राप्त करने का प्रयास करें।
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जिस्म तो खूब संवार लिया, अब रूह का श्रृंगार कीजिए।
शरीर का सौन्दर्य आवरण से, रूह का अनावरण से।
तप से कर्म जलाकर संसार के पिंजरे का विनाश करना होगा।
इच्छा निरोधः तपः ।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

संयम चिमनी है, ज्ञान के दीपक को बाहरी हवाओं/ स्वयं की साँसों से बचाने तथा प्रकाश बढ़ाने के लिए।
राजा का महल जल गया पर वह विचलित नहीं हुआ। अगले दिन बड़ा फलदार पेड़ गिर गया, राजा बहुत रोया।
कारण ?
महल तो दो माह में नया बन सकता है पर ऐसा छाया/ फलदार पेड़ दो जन्मों में तैयार होता है।
संयम वर्तमान में छाया तथा भविष्य में फल देता है।
………………………………………..
संयम = सत् + यम = सत्य से बंध जाना, जीवन पर्यंत के लिए। जैसे
यमराज Forever के लिए ले जाता है।
संयम तीन प्रकार के…प्राणी तथा इंद्रिय लेकिन इनसे भी पहले प्राण(स्वयं के) संयम यानी स्वयं की रक्षा।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

सत्य तो आत्मा का स्वभाव है।
तभी बोला जा सकता है जब रागद्वेष ना हो।
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झूठ वह जिसे बोलने से पहले सोचना पड़े।
सत्य के दो पहलू ….
1) भावात्मक …अनुभव आधारित। मैं सत्य, अन्य संदिग्ध भी हो सकते हैं जैसे जादूगर के कृत।
2) व्यवहारिक …प्रबंधक सहित/ सजा हुआ झूठ।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र. डॉ नीलेश भैया

शौच धर्म = अलोभ।
इच्छायें जमीनी धरातल से मेल नहीं खाती, उस Gap को कम करते जाना शौच-धर्म है।
लोभ = जो मेरा नहीं, वह मेरा हो जाए। पूरा न होने पर क्रोध/ बैर। पूरा होने पर मान। खुद की कमजोरी से पूरा न होने पर मायाचारी/ चोरी तक का सहारा लेते हैं।
जो है वह दिखता नहीं, आज दिख जाए तो कल दिखना बंद हो जाता है। आज दस में अभाव लगता है तो कल दस लाख में भी अभाव लगेगा।

ब्र.डॉ नीलेश भैया

आर्जव यानी सरलता। हालांकि सरल होना सरल है नहीं।
चुगली भी मायाचारी का एक रूप है।
कम से कम देव, शास्त्र, गुरुओं के साथ तो कपट न करें।
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आदमी बहुचित्त वाला होता है।
देखना होगा कि वे मुखौटे मजबूरी या ममता के कारण तो नहीं लगे हैं! पर हम सबको कपटी ही मानते हैं क्योंकि हम मायाचारी हैं। पुलिस भी कभी-कभी चारसौबीसी की वारदातों को सुलझाने में ठगों की मदद लेती है।
कपट शब्द कपाट से बना होगा, दोनों में छिपाना है।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

यदि आपकी मौजूदगी दूसरों को असहज करती है तो उसका कारण है…मान।
अभिमान…अभी + मान। एक तो मेरी मानो यानी अपनी Identity को खत्म करके, वो भी “अभी” के अभी, जबकि सब अधूरे हैं।
Latin भाषा का एक शब्द है….Persona जिसका अर्थ है मुखौटे, इससे बना Personality. जिनके पीछे दुनिया पागल है।

ब्र.डॉ नीलेश भैया

क्षमा दो प्रकार से ….
1) नया क्रोध नहीं करना।
2) पुराने बैरों को समाप्त करके।
कैसे ?
पूर्व समय/ जन्म में किये गए अपने कृत्यों को विचार करके।
किसी पुस्तक के बीच के एक पन्ने को पढ़ कर सही निर्णय नहीं हो सकता है।

ब्र.डॉ. नीलेश भैया

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