कुछ धर्मों ने प्रचार/ फैलाने के लिये हिंसा तथा प्रलोभन का सहारा लिया। क्योंकि उनके पहले प्रचारक से पहले वह धर्म था ही नहीं सो मानने वाले भी नहीं थे।
जबकि पूर्व में वह धर्म पहले से चले आ रहे थे जैसे आदिनाथ/ महावीर भगवान। उन्हें प्रचारादि की ज़रूरत ही नहीं थी।
आवास दान करने से अच्छा आवास मिलता है।
यह दान चार श्रेणियों के लिये किया जाता है –
1. मंदिर – भगवान के लिये
2. संतशाला – संतो के लिये
3. धर्मशाला – साधर्मी के लिये
4. गऊशाला- जानवरों के लिये
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
जिस दिन आपको यह अनुभव हो जायेगा कि… “सब दौड़ व्यर्थ है”।
उस दिन आप उसी जगह पर खड़े रह जाते हैं, जहाँ परमात्मा है।
(धर्मेन्द्र)
धर्म करने से कष्ट बढ़ते नहीं, कष्ट निकलते हैं।
जैसे डाक्टर फोड़ा ठीक करने के लिये फोड़े को दबाकर उसकी गंदगी निकालता है।
उस समय कष्ट बढ़ा दिखता है पर बाद में, सुकून/ आराम।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
अनर्थ परंपरा की संभावना निम्न स्थिति में होती है →
गर्भ से ऐश्वर्य, नया-नया यौवन, अति सुंदरता, अमानुषिक शक्ति।
(ऐसी स्थिति में सावधान रहें)
विनोद शास्त्री
बुराई करने वाला बुरा नहीं होता है,
(वो तो बस) बुराई करने से बुरा हो जाता(सिर्फ बुराई करते समय)।
गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी
धार्मिक ज्ञान की उपयोगिता वैसी ही है जैसी शुरू में पढ़ी गणित की इंजीनियरिंग आदि में।
1. धार्मिक ज्ञान से जीवों का पता लगता उनकी रक्षा का भाव व रक्षा कर पाते हैं।
2. जब आत्मलीनता से बाहर आयें तब अनात्म में लिप्त न हों।
3. परिणामों में निर्मलता/ विशुद्धि।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
(हर्ष/ विषाद में समान्य भाव लाने में बहुत कारगर)
“आवश्यक” भी मांगें नहीं,
“आवश्यक” करें,
तब “आवश्यक” मिल जाएंगे।
चिंतन
कठोरता से निर्माण, मृदुलता से कल्याण।
जैसे फोड़े को फोड़ते कठोरता से, उपचार मृदुलता से।
अपना फोड़ा फोड़ो, दूसरे पर मलहम लगाओ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
हर बात को स्वीकार कीजिए,
समता आपकी बलशाली होगी।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
ज़िंदगी जो “शेष” बची है, उसे “विशेष” बनाइये वरना उसे “अवशेष” बनने में देर नहीं लगेगी।
(डॉ. सविता उपाध्याय)
बिम्ब से प्रतिबिम्ब बनता है,
लेकिन प्रतिबिम्ब से बिम्ब की पहचान होती है।
(रेणु- नया बाजार मंदिर)
मैं खोज रहा था प्रभु को वे खोज रहे थे मुझे। अचानक एक दिन मिल गए।
न मैं झुका, न वे झुके। न वे बड़े थे, न मैं लघु था।
एक आवरण मुझे उनसे विभक्त किए था, वह हटा और मैं भगवान बन गया।
अपने से नाता जोड़ लो फिर किसी और को खोजने की जरूरत नहीं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
तीर्थयात्रा से लौटने पर कहा गया… आपके जाने से सूना हो गया था।
भगवान के जाने पर मंदिर सूने नहीं हुए। क्योंकि वहाँ भगवान के बिम्ब के अभाव में उनका प्रतिबिम्ब बना लिया। मेरे अभाव में मेरे द्वारा जो शुभ क्रिया होती हैं उनका प्रतिबिम्ब यदि बना लें/ वही काम(स्वाध्याय) आप या कोई और करने लगे, तो सूनापन नहीं लगेगा।
चिंतन
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