दहला देता था वीरों को, जिनका एक इशारा;
जिनकी उंगली पर नचता था, ये भूमंडल सारा।
कल तक थे जो वीर, धीर, रणधीर अमर सैनानी;
मरते वक्त न पाया उनने, चुल्लू भर भी पानी।।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
चक्रवर्तियों का अंत भी दुखद देखा गया है।
जानवर पालना आसान है, मुगालता पालना कठिन।
आज पुण्य के उदय से निरोगी काया है, माया, कुलवंती नारी, पुत्र आज्ञाकारी है, पर ये हमेशा नहीं बने रहेंगे।
कुटुम्बादि आसाता का उपाय – शब्दों/ वचन का वास्तु ठीक करने से सब ठीक हो जाता है।
मुनि श्री विनम्रसागर जी
बीमार को देखकर/ सम्पर्क में आने पर बीमार होना पसंद नहीं करते हो।
तो क्रोधी आदि के सम्पर्क में आने पर क्रोध आदि क्यों ?
(सुरेश)
प्रयास प्रायः अधूरे मन से होता है,
पुरुषार्थ पूरे मन से।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
छूटने की कल्पना से ही भय होता है, वैभव/ शरीर/ प्रियजनों के छूटने का भय।
यदि इन सबको नश्वर मान लो और आत्मा को अनश्वर तो भय समाप्त।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
अच्छी आदत की एक बुरी आदत भी है….
देर से आदत पड़ती है और छूटने की जल्दी मचाती है।
चिंतन
राजनीति अच्छी या बुरी ?
राजनीति राजा की नीति, राजा अच्छा तो नीति अच्छी, राजा बुरा नीति बुरी।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
मन कोमल होता है तब ही तो आकार ले लेता है गर्म लोहे की तरह,
झुक जाता है तूफानों में।
घुल जाता है अपनों में या अपने में।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
चाह बुरी नहीं, यह तो नाव की गति के लिये आवश्यक जलप्रवाह है। पर वह प्रवाह बाढ़ नहीं बननी चाहिए वरना जीवन की नाव डूब/ भटक जाएगी।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
पथ्य* जो पथ में लिया जाता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
* रास्ते के लिए भोजन सामाग्री/ अगले जन्म को जाते समय पुण्य कर्म।
भगवान के अनंत गुणों में से उस गुण की चाह करें जो हमारी कमजोरी हो।
आज तक बस गुणगान करते रहे, इसलिए भगवान का कोई गुण हम में आ नहीं पाया।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
विश्वास तब जब बुद्धि के परे हो, फिर चाहे संसार हो या परमार्थ।
विश्वास किया जाता है, दिया नहीं जाता।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
शिक्षा Broad अर्थ में आती है, विद्या भी इसमें समाहित है।
विद्या Specific, जो हमारे जीवन को संवारने के काम आये। इसलिए विद्यार्थी कहा, शिक्षार्थी नहीं।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
धर्म संकटों को समाप्त नहीं करता, उन्हें सहने की शक्ति देता है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
अपने पापों को स्वीकार कराता है/ पापों का एहसास कराता है। आगे पापों की पुनरावृत्ति रोकता है।
चिंतन
संयम….स्वाधीन है, सरल है।
असंयम…पराधीन, कठिन।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
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