‘भाग्य से अधिक और समय से पहले कुछ नहीं मिलता’ – यह सिद्धांत शुरुआत के लिए खतरनाक है/ पुरुषार्थहीन बना देता है।
पुरुषार्थ पूरा करने के बाद, फल का इंतज़ार करते समय इस सिद्धांत को जरूर लगाना, तब यह आपको Tension से मुक्ति दिला देगा।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

जैन दर्शनानुसार – धार्मिक गृहस्थ लोग हिंसा करते नहीं पर जीवनयापन में हिंसा हो जाती है। उसके लिये उन्हें थोड़ा सा दोष लगता है/ नहीं भी लगे।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

हस्तिनापुर पापियों की राजधानी, जो पहले समृद्ध थी, वह आज गाँव है।
इन्द्रप्रस्थ पुण्यात्माओं की राजधानी, आज देश की राजधानी है (दिल्ली)।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

पहली बार धोखा देने वाले को शर्म आनी चाहिए।
दूसरी बार धोखा/ अहित/ नुकसान खाने वाले को शर्म आनी चाहिए क्योंकि आपने अपने आपको संभाला क्यों नहीं !

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

आदिनाथ भगवान ने जीवों को जीना सिखाया (कृषि आदि षट्कर्म बता कर)।
महावीर भगवान ने जीवों को मरने से बचाया।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

स्वर्ण में चकाचौंध नहीं, नकली ज्यादा चमकीला होता है। ऐसे ही सही मायने में बड़े/ ऋद्धिधारी सहज होते हैं।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(फिर हम विशेष के चक्कर में क्यों ?
सामान्य रहेंगे तो एक दिन विशेष भी बन जाएंगे। पर विशेष के चक्कर में न सहज ही रह पाएंगे, नाही विशेष हो पाएंगे)
फौज में सारे विशेषज्ञ “साधारण(General)” के नीचे ही काम करते हैं।

(चिंतन)

संयम फूल है, ब्रह्मचर्य फल।
आजकल ब्रह्मचारी तो भ्रम है, आदर्श देखना है ब्रह्मचारी नीलेश भैया को देखें।
क्षमा मांगनी है तो अपनी वासना से मांगो, जहाँ पाप पनप रहे हैं।
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डूबो मत, लगाओ डुबकी…आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज।
डूबना परवश, उभरना नहीं। डुबकी स्ववश, उभरना भी।
ब्रह्मा सृजन कर्ता, मैं भी सृजन कर्ता।
ब्रह्म भाव…गृहस्थों का…आत्मीय व्यवहार,
साधुओं का भगवत् व्यवहार, यह ब्रह्मचर्य है/ सुखानुभव है।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डाॅ नीलेश भैया

मेरे काॅलिज के समय मेरी बुआ जी ने ब्रह्मचर्य व्रत लिया था।
ब्रह्मचर्य क्या होता है ?
समझाने बुआजी ने एक ओर मुझे बैठाया दुसरी ओर फूफा जी बैठे थे। बुआ जी ने दोनों पर हाथ रखते हुए कहा …जिस दिन दोनों हाथों की संवेदनायें एकसी हो जायेंगी तब ब्रह्मचर्य कहा जायेगा।

गुरुवर मुनि श्री क्षमा सागर जी

आकिंचन्य यानी किंचित भी मेरा नहीं। सत्य को सत्य स्वीकारना।
इसमें कुछ करना नहीं है। राग द्वेष से मुक्ति का नाम आकिंचन्य है।
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ज्यों की त्यों धरदीनी चुनरिया। वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव…
1) सब मेरा ही तो विस्तार है, चाहे इस जन्म का या पिछलों का
2) क्या लेके आया था क्या लेके जाउँगा ! शरीर भी मैंने यहीं आकर माँ के पेट में बनाया था। जो आज मेरा है कल किसी और का हो जायेगा तो चुनरिया मैली करने का हक मुझे नहीं।
मेरे होने का अर्थ है कि मैं कुछ हूँ नहीं।
उम्रे दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गये दो इंतज़ार में, बचा आकिंचन्य।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

त्याग पूर्ण का, साधुओं के द्वारा। दान आंशिक, गृहस्थों द्वारा। क्योंकि उनसे घर के कामों में हिंसा/ पाप हो ही जाती है। उसके प्रक्षालन के लिए 10, 16, 25% दान करने को कहा है।
दान चार प्रकार के…आहार, औषधि, अभय और ज्ञान।
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प्रवृत्तियाँ…1) परिग्रह…दान का महत्व समझ कर भी न देना। बच्चा बोला देखकर, अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान!
2) संग्रह…समविभाग दान करना। मुकुट झुकने लगें जब, त्याग दो अधिकार सारे। तुम तो ढ़ोने वाले हो, लेने वाले का पुण्य है।
3) परस्परोपग्रहो जीवानाम…जो करोगे वह लौट कर ब्याज सहित मिलेगा ही।
4) वसुधैव कुटुम्बकम्…तब देना तो अपने ही परिजनों को हुआ न !

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

घी दूध को तपाने पर प्राप्त होता है, हलकी-हलकी आग, सुपात्र(मिट्टी) में तपाने से ज्यादा तथा सुगन्धित घी मिलता है।
ऐसे ही नर से नारायण बनने धीरे-धीरे तप बढ़ाना तथा सुपात्र का निमित्त पाना होगा।
जब तक तप न कर पायें, तब तक मानवता प्राप्त करने का प्रयास करें।
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जिस्म तो खूब संवार लिया, अब रूह का श्रृंगार कीजिए।
शरीर का सौन्दर्य आवरण से, रूह का अनावरण से।
तप से कर्म जलाकर संसार के पिंजरे का विनाश करना होगा।
इच्छा निरोधः तपः ।

मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
ब्र.डॉ नीलेश भैया

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