तुम अगर चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे/ बहुत दूर निकल सकते थे।
तुम ठहर गये, लाचार सरोवर की तरह;
तुम यदि नदिया बनते तो, कभी समुद्र भी बन सकते थे।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
सौभाग्य → त्रैकालिक (भूत, भविष्य, वर्तमान)।
अहोभाग्य → वर्तमान का।।
(अहोभाग्य जो सौभाग्य को Cash करले)*
इसलिये अहोभाग्य, सौभाग्य से बहुत महत्वपूर्ण है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
* Cash न कर पाये तो दुर्भाग्य
बेहतर छिनने पर विश्वास रखें → बेहतरीन मिलने वाला है।
धर्मात्मा पुण्यहीन …. पुजारी, पूरा जीवन गरीबी के साथ धार्मिक क्रियाएँ करता रहता है।
धर्मात्मा पुण्यवान …. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
दिखावे के धर्म में पुण्य/ लाभ कम, पर दूसरों पर धर्म की प्रभावना पूरी।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
सुख/ दु:ख एक ही बगिया के पौधे हैं।
इन्हें लगाने/ सींचने/ संवारने/ बढ़ाने वाले माली हम खुद ही हैं।
(सुरेश)
प्रतिक्रिया वहाँ जरूर दें जहाँ सुलझने की संभावना हो।
जहाँ उलझने की संभावना हो, वहाँ शांत।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
धर्म संसार की चकाचौंध से दूर तो नहीं कर सकता।
पर धर्मरूपी (धूप का) चश्मा लगाने से आँखें खराब नहीं होंगी।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
गृहस्थ हर समय धर्मध्यान करे तो गृहस्थी नष्ट (जैसे साधु की)।
धर्मध्यान न करे तो गृहस्थी भ्रष्ट।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
हिंसा/ झूठादि पाप हैं तो अहिंसा/ सत्यादि पुण्य क्यों नहीं ?
अहिंसादि व्रत हैं जो पुण्य से बहुत बड़े/ ऊपर हैं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
(एन.सी.जैन – नोएडा)
इन्द्रिय विजय का तरीका पूछने पर आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा- “इन्द्रियों का काम मन से मत लेना। इन्द्रियों के संवेग को कम करने के लिये मन का वेग कम करना होगा और मन का वेग, विवेक से कम होगा।”
आलस्य (प्रमाद) भीति तथा प्रीति से ही कम होता है।
भीति – आलसी को बोल दो साँप आ गया, तब आलस्य रहेगा !
प्रीति – बच्चों की देखभाल में !!
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
जिम्मेदारी दुनिया का सबसे बहतरीन टॉनिक है।
एक बार पी लो जिंदगी भर थकने नहीं देती है।
(अरविन्द बड़जात्या)
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