जो अपने सगों की कमजोरियाँ जिनसे Share करे, वह सबसे ज्यादा सगा (फिर चाहे वह अपना Blood Relative हो या ना हो)।

चिंतन

नित्य मंदिर के दर्शन क्यों ?
1. नित्य स्कूल जाते हैं पढ़ने के लिये, मंदिर जाते हैं अपने को गढ़ने के लिये।
2. जैसे प्रियजन को हृदय में रखने के बावजूद उससे रोजाना मिलकर आनंद आता है, ऐसे ही भगवान के दर्शन से।
3. रोज दर्पण में रूप को देखते हैं, भगवान में अपने स्वरूप को।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

भक्त दीपक, भगवान सूरज;
भक्त भगवान को दीपक कैसे दिखा सकता है ?
दीपक दिखाने की तो उपयोगता नहीं है, पर दीपक से भगवान की आरती तो उतार सकता है ! उतारनी चाहिये भी।

मुनि श्री सुधासागर जी

पहाड़ पर चढ़ते समय गुरु ने शिष्य के सिर पर वज़न रख कर दिया। शिष्य को परेशानी हो रही थी, तब गुरु ने वज़न हटवा दिया।
कारण बताया… हलका होने का महत्व समझाने को वज़न रखवाया था।
सोचो… जब अंतरंग का वज़न हलका हो जायेगा तब कितना अच्छा लगेगा !

आर्यिका श्री दृढ़मति माताजी

कोयल चालाकी से अपने अंडे कौवे के घोंसले में दे देती है। बच्चे निकलने पर कौवा अपने और कोयल के अंडों में फ़र्क नहीं कर पाता। कोयल अपने बच्चों को कौवे से बड़ा करवाती है और उन्हें पहचान कर उड़ा ले जाती है।

हम कोयल हैं या कौवा ?
क्या हम आत्मा और शरीर में भेद कर पाते हैं ??

आचार्य श्री विद्यासागर जी

गृहस्थ और साधु में अंतर

गृहस्थ परिस्थितियों को अपने अनुसार बद‌लने का प्रयास करता रहता है। परिस्थितियां नित नयी बदलती रहती हैं; सो उसके अनुरूप हो नहीं पातीं और वह दु:खी होता रहता है।

साधु अपने को परिस्थितियों के अनुसार बदल लेता है। वह बदलाव को तप मानकर कर्म काटता है और ख़ुश रहता है।

चिंतन

ढोलक ऊपर से ढकी/ सुंदर, अंदर से पोल।
इसीलिये पैरों पर रख कर पीटी जाती है, हालांकि वह बांसुरी आदि वाद्यों से बड़ी व भारी-भरकम होती है।
जबकि बांसुरी फटे बांस सी, हलकी फुलकी, अपने अंदर हवा भी नहीं छुपाती, सरल, मधुर स्वर वाली, इसीलिये होठों पर रखी जाती है।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

इस मौसम में सब वृक्ष अपने पत्ते छोड़ते हैं।
क्या उनको पुण्य मिलेगा ?
नहीं,
क्योंकि उनके पत्ते छोड़ने का कारण ममत्व कम करना नहीं बल्कि नये पत्ते प्राप्त करना होता है।

चिंतन

ऐसी कहावत क्यों ?
जब कि उसे सुनाई तो देता है, अपने बच्चे की हलकी सी आवाज़
भी सुन लेती है!
पर ये तो राग/मोह की आवाज़ होती है,
बीच सड़क पर तेज़ हौर्न नहीं सुनती/सुनकर अनसुना कर देती है।

यदि हम भी अपने हित की बातें न सुनते हों, अनसुना कर देते हों तो!!

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

यदि शुभ भाव रखेंगे/ अपने आपको खुश अनुभव करेंगे तो दु:ख प्रवेश कैसे करेगा !
बाकी उपायों से दु:ख दूर नहीं होता, उन पर मरहम लग जाती है/
थोड़े समय के लिए सुकून मिल जाता है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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