सेवा करना चाहते हो तो ग्लानि और गाली को जीतना होगा।
सेवा करने की क्षमता और गाली सहने की समता बढ़ानी होगी।

मुनि श्री सौम्यसागर जी

मढ़िया जी में आचार्य श्री विद्यासागर जी मंच पर विराजमान थे। तेज़ ठंडी हवा चल रही थी। आ.श्री बिलकुल सहज बैठे थे, जबकि बाकी सब कँपकँपा रहे थे।
कारण पूछने पर आ.श्री ने कहा, “वेदना परिणामः प्रतिक्रिया”* यानि वेदना पर ध्यान देने से वेदना बढ़ती है।
यही आचार्य श्री की ज्ञानकला है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

*श्री धवला जी, 12वीं पुस्तक

“प्रभु का दास,
कभी उदास नहीं,
क्योंकि प्रभु है पास”
तब सोच…. जो हो सो हो (हमको क्या) कर्मों का फल सुनिश्चित फिर संयोग वियोग से घबराना क्यों ?
पत्नी/ बेटा/ बेटी तो परछायी हैं, कर्मों की।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

S + HE = SHE
यानि –
1. HE, SHE में है/ से ही बनता है।
2. HE में कुछ और Add होकर SHE बनता है,
इस अपेक्षा से SHE, HE से बड़ा है।

एकता-चिंतन

(उन सोच वालों के लिए जो स्त्रियों को पुरुषों से छोटा मानते हैं)

“गुरो: सर्वत्र अनुकूलवृत्तिः”
(यानि गुरु जो कहते/चाहते हैं, वह सब मेरे अनुकूल/भले के लिये है)
इसका हमेशा पालन अनिवार्य है। इसको विनय कहते हैं, इसके बिना मोक्ष का द्वार बंद।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

कमजोर जो आकुल है/ बल का प्रयोग करता है।
बलवान जो निराकुल है/ सहन करता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

पुलिस अपराधी को तब तक पीटती रहती है जब तक वह अपराध स्वीकार नहीं कर लेता।
हमको भी कर्म तब तक पीटते रहेंगे जब तक हम गलती स्वीकारते/प्रायश्चित नहीं करते।

मुनि श्री सुधासागर जी

सेवा…..
1. मन मिलाने का/ वात्सल्य पाने का उपाय है
2. कर्तव्यनिष्ठा है
3. दूसरों की सेवा, अपनी वेदना मिटाती है
4. नम्रता व प्रिय वचनों से दूसरों के रोग तक दूर हो जाते हैं।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

शांति की इच्छा मत करो, इच्छाओं को शांत करो।

चाह ज़र* से लगी, जी ज़रा हो गया,
चाह हरि से लगी, जी हरा हो गया।
चाह पूरी हो जाय तो वाह,
चाह पूरी न हो तो आह।।

पर वाह कितनी देर की ?
‘वाह’ को उल्टा करें तो ‘हवा’।

* स्वर्ण/ सम्पत्ति

पशु के भय, आहार, मैथुन प्रकट होते हैं यानि कहीं भी/ कभी भी।
विडम्बना यह है कि मनुष्य भी आज यही कर रहा है। उन्हीं की तरह पाप करने में संकोच नहीं करता।
डारविन ने तो कहा था कि मनुष्य पशु से बना है पर आज दिख रहा है कि मनुष्य पशुता की ओर बढ़ रहा है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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