“निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवायै”
सार्वजनिक क्षेत्र में आंगन रामलीला मैदान होता है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

चील ऊंचाई पर उड़ती है, बिना पंख मारे देर तक उड़ती रहती है, उनके बच्चे भी ऊंचाई पर सुरक्षित – पुराने पुण्य से ।
छोटी छोटी चिड़ियोँ के पास उतने पुण्य नहीं, सो बार-बार पंख मारने पड़ते हैं फिर भी ऊँचाईयों को नहीं छू पातीं ।

चिंतन

बच्चा (10 साल) – गुरु जी !
कहते हैं णमोकार (भगवान का नाम) पढ़ने से पाप कट जाते हैं ! फिर पाप करने से डरें क्यों ?
पाप करो, जाप करो, माफ करो !!
कमरा साफ रखने के लिए भगवान के नाम की झाड़ू काम करती है लेकिन खिड़कियाँ खुली रखीं तो पाप रूपी धूल गंदा करती रहेगी ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

“मेरा कोई नहीं” महत्वपूर्ण मंत्र है पर इसे जपने से निराशा/ दु:ख और-और बढ़ जाते हैं, ऐसा कैसे ?
क्योंकि हम अधूरे मंत्र को जपते हैं, इसकी अगली लाइन है – “मैं भी किसी का नहीं” ।
इस पूर्ण मंत्र को जपते ही वैराग्य पनपने लगेगा, दु:ख/ निराशा कम होने लगेगी ।

मुनि श्री महासागर जी

दोनों के भाव एक से होते हैं –
पुण्यात्मा = भगवान के दर्शन में नित नया आनंद ।
पापी = भोगों में नित नया आनंद ।
दोनों अगले जन्म में भी यही पाने के भाव रखते हैं ।
दोनों सोचते हैं इस जन्म में देरी से शुरू किया अगले जन्म में समय खराब नहीं करुंगा ।

मुनि श्री सुधासागर जी

अनुवाद (अनु = Follow + वाद = वचन ) नाम का कभी नहीं होता ।
दुर्भाग्य – भारत को India करने का क्या Justification था!
नाम से संस्कृति ही बदल दी ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

(अनुवाद = दोहराना – शाब्दिक अर्थ; जैसे गुणानुवाद प्राय: एक भाषा से दूसरी भाषा के लिए प्रयोग होता है पर नाम तो संज्ञा है/पहचान है – कमल कांत जैसवाल)

मुनि श्री महासागर आदि 25 ब्रह्मचारियों की दीक्षा बहुत दिनों से रुकी हुई थी । वह सब आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास गए, निवेदन किया – कोई मंत्र दे दें, ताकि हम लोगों की दीक्षा हो जाए।
आचार्य श्री ने मंत्र दिया – “दीक्षा हो जाए” इसकी जाप जपो । थोड़े दिनों में दीक्षा हो गई ।
पहले मंत्र का फल तो मिल गया अब कोई और मंत्र ?
1. सबका कल्याण हो ।
2. समाधि-मरण हो ।
भावना भाने का जीवन में बहुत महत्व होता है ।

मुनि श्री महासागर जी

उलझनों से कैसे निकलें ?

1. उलझन में उलझें नहीं ।
2. आचार्य श्री विद्यासागर जी कहते हैं – “उलझन” में से “उ” निकाल कर, समता का “स” लगा दें यानि “उलझन” “सुलझन” बन जाएगी ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

भगवान ने कहा – संयम/ त्याग/ ब्रह्मचर्य में आनंद है । सामान्य गृहस्थ को विश्वास नहीं होता ।
साधुओं ने पूरा संयम/ ब्रह्मचर्य करके दिखाया, खुद आनंदित/ दु:खी गृहस्थों को आनंदित किया ।
इससे भगवान के वचनों पर/ भगवान पर विश्वास होने लगा।

मुनि श्री सुधासागर जी

कमल इतना पवित्र/ सुंदर/ सुगंधित होते हुए भी जन्मदात्री कीचड़ से सम्बंध नहीं तोड़ता ।
हम बड़े होते ही !
(हाँ ! यदि भगवान के चरणों से सम्बंध स्थापित करना हो, तो कीचड़ से सम्बंध तोड़ना पड़ता है)

आचार्य श्री विद्यासागर जी

सारी घटनायें हमेशा पूर्व कर्मों का फल ही नहीं होतीं, संयोगाधीन भी होती हैं ।
सारे बैंक ट्रांजैक्शन पूर्व जमापूंजी के अनुसार ही नहीं होते बल्कि नए अकाउंट भी खुलते हैं ।
हर पल के लिए मैं और मेरे पूर्व कर्म ही जिम्मेदार नहीं है । एक हाथ से भी ताली बजती है कभी-कभी ।

गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

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