क्षमा-दिवस

इस साईट के प्रणेता- गुरूवर मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज का आज समाधिमरण हो गया ।
पूज्य मुनि श्री ने पिछले दो दिनों से आहार नहीं लिया था ।
मुनि श्री भव्यसागर जी ने उन्हें अंतिम संबोधन दिया ।

हम सब आज के दिन को “क्षमा-दिवस” के रूप में मनायें और उन लोगों के प्रति विशेष रूप से क्षमा भाव रखें, जिनसे मन मुटाव हुआ हो ।

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क्रोध से दाग पड़ता है,
क्षमा आने पर दाग बढ़ना बंद हो जाता है,
प्रेम उस दाग को साफ कर देता है ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

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10 Responses

  1. Maharajji ke charno mein Koti-Koti Naman.
    Maharajji bilkul apni naam ke tarah the….kshama ke sagar.Atyant saral aur sneh, vatsalya se bhare. Unke pravachan dil ko chhu janewale the.Simple yet with lot of depth. Unhone science ko Jainism se jodkar aaj ke yuva varg ko dharm se bahut badhiya se joda tha. We have lost a Gem.

  2. Muni shree ke baarien mein kya kahe…itni udarta, karuna I have never seen in anyone…
    unke pravachan aur dharam ke prati shrdha life mein jeena shikhatee hain.
    mujhe lagta tha ki muni shree thik honge aur unse pravachna sunne ko milenge but jab kal news suni to I was not able to accept it …

  3. Munisri Kshàmasagarji ko koti koti namostu,
    maine apne jeevan mein unke darshan kabhi nahi kiye, jiska afsos mujhe hamesha rahega.
    Unke baare mein jo bhi suna usse main adhyatmik roop se jud gayi thi, aisa lagta tha jaise ki bina darshan kiye main unko jaanti thi.
    Unki kavitayen , mere hriday ko chu jate hain. Unka jeevan aur maran dono hee sachche arth mein utkrishta rahe hai.
    Do shabd jo unke naam ko sarthak karte hain – “Kshama aur Samata”

  4. Munisri aaj hamare beech mein nahi hain, aisa lagta hai koi apna chala gaya hai, aap sabke ho gaye the.

  5. अरुणा जैन वाशी नई मुंबई। said,

    March 21, 2015 @ 2:30 pm

    विनयांजलि।
    श्रद्धास्पद पूज्य श्री क्षमा सागरजी महाराज
    एक ज्योति पुंज सा आया वह महामना
    ज्योति प्रतीक होती है रोशनी की,प्रकाश की ,असत् से सत् की ओर प्रेरित करने की।जब यह ज्योति अपनी समग्रता लिए हो तो पुंज के रूप में वह हमें ‘अलौकिक’ प्रकाश की आभा दे जाती है, और फिर हम भर उठते हैं उस अदभुत प्रकाश से
    मेरे जीवन को भी २४ मई १९९४ को एक ऐसे ही ‘ज्योति पुंज ‘ क्षमासागरजी ‘की आभा मिली ,जो मुझे प्रेरणा दे गया परमार्थ को पाने की ,स्वार्थ से विमुख होने की,और दे गया वह आत्मीयता ,जो व्यक्ति आजीवन नहीं पा पाता ।
    मुझे लगा कि मैनेभी तो चाही थी यही ,आत्मीयता ‘जो कभी मेरी आंखों को नम कर जाए ।मैने भी चाही थी,वह जीवन दिशा जो मेरे जीवन को एक नया बोध दे,और वह मैने इस व्यक्ति त्व के माध्यम से पाई है।
    महान व्यक्ति किसीएक का नहीं होता:वह सबका होता है।स्वयं मुनिवर ने लिखा है कि
    एक नन्हीं बदली प्रेम से भरकर मुझसे
    निरन्तर बरसने को कह गई,
    इस तरह मेरी जिन्दगी ,
    सबकी हो गई ।’
    महान व्यक्ति इतना क्षमतावान् होता है किसबको ‘ सागर ‘ की तरह अपने में समाहित कर लेता है । हां समुद्र मंथन के बाद अमृत की प्राप्ति होती है। इस सागर सेभी हमने अमृत ही पाया है ;अबयह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम अपनी अंजुलि में कितना भर पाते हैं ।
    वैसे भी भर पाना श्रद्धा का सूचक है । ‘
    मैंने लिखा था कि ‘ज्ञान के इस जलधि से एक एक बूंद ज्ञान भी अपनी अंजुलि में भर लूगीं तो ,सबसे बडी श्रद्धा होगी इन गुरुवर को मेरी ‘।
    वैसे भी श्रद्धा के भाव होते ही ऐसे हैं ;यह किसी के कहने से नहीं उपजते ,यह तो अंतस के ही,किसी कोने से निर्मल निर्झर की तरह बहते हैं;तब शब्द ,मौन हो जाते है ,आंखें भीग जाती हैं ,और अंतस के ही किसी कोने से महाप्राण ध्वनि सी ध्वनि गूंजती है नमोस्तु की ।
    तो क्यों हम किसी के प्रति झुकते है ?इसका मतलब है जरूर हमने इन चरणों में कुछ तो पाया है या फिर कुछ शेष है जो हमें पाना है ।यदि हम माने तो कहीं न कहीं इन महामना की भावनाए ,इनके विचार हमें अपना स्पर्श दे जाते है ; एक संकल्प सा दे जाते हैं स्वयं को बदलने का अपने विचारों को परिष्कृत करने का ,अपनी भावनाओं को परिमार्जित ,करने का ।
    मुझे भी लगा कि यदि मेघ जैसे बरसकर ,अपने जीवन में ,किसी की उष्णता कम न कर सकू तो ,उस उष्णता को कम करने का तोष तो पैदा कर सकूँ ,वृक्ष कीछाया यदि किसी को न दे सकूं ,तो उस छाया का आभास तो दे सकूँ , परोपकार के समय संकीर्णता नहीं इंसानियत घर कर जाए ;सरलता औरसहिष्णुता मेरी हर सांस में समा जाए ।काश ।इन भावनाओ के साथ मैने शेष जीवन जिआ तो ,मैं समझूगीं कि यही मेरी सच्ची विनयांजलि है ,इस ज्योति पुंज ‘के श्री चरणों में ”
    “वे सारी बातें और मन ,
    वहीं लौट जाना चाहते है ,
    जहाँ जले थे आस्था के दीप ,
    जहाँ जले थे श्रद्धा के दीप ,
    जहाँ जले थे समर्पण के दीप ।”
    ऐसी दिव्यात्मा जो कहीं अनंताकाश में विलीन हो गई ;पर हर क्षण साथ होने का एक एहसास देती है ;ऐसी महान आत्मा को मेरी भावभीनी विनयांजलि समर्पित है ।
    नमोस्तु
    नमोस्तु
    नमोस्तु
    अरुणा जैन
    वाशी नई मुंबई

  6. Main kabhi poojya Kshamasagarji se nahi mila par kuchh hi din pehle meri Aunty Smt Aruna Jain ji ke sahyog se unki kavitaon ke sangrah MUKTI ko padhne ka saubhagya mila. Mujhe bahut hi achchha laga. Itne saral aur sahaj tareeke se jeevan ka vishleshan aur is path par safalta poorvak chalne ka maarg darshan mila ki shabdon ke madhyam se vyakt nahin kiya ja sakta hai …. Sirf mahsoos kiya ja sakta hai. Yadi hum in baaton to apne Jeevan mein utar sakein, to in mahan vibhuti ke prati hamari saarthak vinayanjali hogi. Namostu.. Namostu… Namostu

  7. गुरू की महिमा तो वरणी नहीं जा सकती और जिस गुरु के नाम की शुरूआत “क्षमा” शब्द से हो ( जिस क्षमा से धर्म की शुरुआत भी होती है )तथा अंत ,अंतहीन “सागर” पर होता हो,
    उसके बारे में कोई क्या लिख सकता है ।

    उनका प्रथम सानिध्य सन 94 में मिला ।
    पहली नज़र आँसुओं से उनके चरण धोने को आतुर होने लगी थीं । मैंने पत्र लिखा कि आपको गुरु बना लिया है । उन्होंने कहा – गुरु शिष्य संबंध धर्म के होते हैं, ये तभी तक Maintain करना चाहिये जब तक वे एक दूसरे के लिये धर्म में सहायक रहें ।

    Voluntary retirement पर उनकी सलाह थी – अपने indirect सांसारिक कर्तव्यों को भी पूरा करो, फिर retirement लें ।
    तब तक क्या करूं ?
    गुरू जी – मेरे पास आते ही हो, यहाँ से सीखो और उन लोगों के पास जा जा कर बाँटों जो दूर हैं, यहाँ नहीं आ पाते हैं ।

    समाधि से कुछ दिन पहले वे सिर्फ हमारी ओर देख रहे थे । उनकी नज़र में राग भी नहीं था मानों वे वीतरागता की सीमा पर पहुंच गये थे ।

    – योगेन्द्र कुमार जैन

  8. जिसने मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी, परम पूज्य क्षमासागर जी महाराज जब प्रथम बार ग्वालियर आये तब उनके समीप बैठने का, प्रश्नोत्तर करने का तथा अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने का अवसर मिला ।
    मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि नयाबजार मंदिर जी में कोई प्राचीन मूल ग्रन्थ नहीं है । तब तक मंदिर जी में मूल ग्रन्थों का अभाव था ।
    मैनें कहा महाराज जी आप सूची बतायें हम सब मिलकर मंगाने का प्रयास करेंगे ।
    मार्ग मिल गया, महाराज जी ने जैसे ही सूची दी उन्हें शास्त्र भेंट स्वरूप बोलिओं की जो रकम आयी उससे पुस्तकालय निर्माण होना शुरू हो गया ।
    महाराज जी जहाँ जहाँ भी रहे वहाँ से वे शास्त्रों की सूची भिजवाते रहे एवं मंदिर जी के पुस्तकालय में पुस्तकें आती रहीं और एक सुंदर पुस्तकालय निर्मित हो गया ।
    महाराज जी ने दूसरा कार्य जनोपयोगी प्रारंभ कराया नि:शुल्क पाठशाला का, पाठशाला बहुत श्रेष्ठ ढ़ंग से श्रुतपंचमी को प्रारंभ हो गयी, उनके समक्ष लगभग 100 बच्चे तक आना प्रारंभ हो गये थे ।
    महाराज जी के नाम से मंदिर जी महिला परिषद की ओर से “क्षमासागर बाल पुस्तकालय” का भी प्रारंभ हुआ ।
    हम लोग जहां जहां भी गये महाराज जी ने अलग से समय दिया एवं हमारी शंकाओं का समाधान किया ।
    ढ़ेरों स्मृतियां हैं गुरूवर की । उन्होंने हमें रत्नकरण्ड़ श्रावकाचार, महावीराष्टक, मोक्ष शास्त्र आदि का अध्य्यन कराया ।
    महाराज जी के पास समय समय पर आने वालों के साथ पत्र भेजती और मुझे उनका आशीर्वाद प्राप्त होता रहा, आशीर्वाद पाकर कई दिनों तक मन प्रफुल्लित रहता था ।

    ऐसे महान गुरुवर की अयोग्य शिष्या उषा जैन – ग्वालियर

    पुनश्च : महाराज जी ने समय समय पर आशीर्वाद स्वरूप आचार्य श्री विद्यासागर जी का समग्र सेट एवं अन्य पुस्तकें भिजवाईं ।
    कहां कहां तक कहें उनके जाने पर मुझे उतना ही दु:ख हुआ जितना कि अपने पति एवं बेटे के जाने पर हुआ ।
    आज मैं अपने को असहाय महसूस करती हूँ लौकिक में प्रियजनों का साथ छूटा, जो अलौकिक का मार्ग निर्देशन कर रहे थे उनका भी साथ छूट गया ।

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