हम सब उत्पाद हैं, चेतना + पदार्थ (शरीर) के।
चेतना, विचारपन देती है/ चाहना बढ़ाती है, गणित लगाती है, दुःख की निमित्त(कारण) है*।
पदार्थ… विस्तारपना जैसे शरीर को बनाये रखने/ बढ़ाने के लिये रोटी, कपड़ा, मकान; आवश्यक।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
* दृष्टिकोण बदल जाए तो सुख कारण भी।
क्या महिलाओं को नौकरी करनी चाहिए ?
(यदि इमरजेंसी हो तो) चाकरी को अधम कहा गया है। नौकरी में पराधीनता है जबकि सुख स्वाधीनता में ही है। जोब में अनेकों संक्लेश होते हैं।
बच्चों के लिए पहली पाठशाला माँ है।
आप गवर्नर क्यों नहीं बनते जैसे माॅल का मालिक, अरनर क्यों होना चाहते हो जैसे सेल्समैन !
मुनि श्री सौम्य सागर जी- 11 फरवरी
भगवान की मूर्ति के दर्शन पहले खुली आंखों से करें, उनके रूप को अपने अंतस् में भर लें। फिर आंख बंद करके उस रूप का आनंद लें।
वह रूप मन में टिकेगा तब जब आपके कान और मन बंद हों।
मुनि श्री सौम्य सागर जी- 10 फरवरी
थाली में झूटन छोड़ने से नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है।
अन्न को अन्य मत मानो।
अपनी भूख पहचानो तभी अपने को पहचान पाओगे।
किसी के पेट पर लात मारोगे तो तुम्हारा पेट ठीक कैसे रहेगा।
मुनि श्री सौम्य सागर जी- 11 फरवरी
अपेक्षा परावलम्बी, इच्छा स्वावलम्बी।
इच्छा में अपेक्षा का होना हानिकारक।
श्रद्धा में अपेक्षा/ इच्छा नहीं, इसलिये लाभकारी।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
परमात्मा बनने की विधि….
गुणवानों का गुणगान करने से खुद गुणवान बनेंगे तब धर्म जीवन में आएगा, धर्मात्मा हो जाएंगे। फिर पुण्यात्मा और उससे बन जाएंगे परमात्मा।
इसके लिए पहले साफ सफाई करनी होती है अंतरंग की फिर उसकी सुरक्षा के उपाय।
जितना बड़ा मेहमान आता है या जितना बड़ा बनना होता है, उतनी ज्यादा सफाई और सुरक्षा का इंतजाम करना पड़ता है।
मुनि श्री सौम्य सागर जी- 10 फरवरी
हम मकान क्यों/ कब छोड़ते हैं ?
- Contract की अवधि पूरी होने पर।
- समय पूरा होने से पहले मकान जीर्ण-शीर्ण हो जाय।
आत्मा भी शरीर को इन दो परिस्थितियों में ही छोड़ती है।
चिंतन
जीना उसी का नाम है, जिन्होंने जीना (सीढ़ी) बना दिया (मोक्षमार्ग) जैसे आचार्य श्री विद्यासागर जी।
आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी
कर्म के उदय को स्वीकार करना ही अध्यात्मविद्या है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी (मुनि श्री अक्षयसागर जी)
धर्म 2 प्रकार का –
व्यक्ति सापेक्ष → सब अपने-अपने भावों को परिष्कृत करते हैं।
वस्तु सापेक्ष → वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
एक समृद्ध गुरुकुल खुला। जो भी पढ़ने आता उससे एक ही प्रश्न किया जाता – “तुम कौन हो ?”
बच्चे नाम बताते।
योग्य नहीं हो।
कुछ जबाब बदल देते –> मैं आत्मा हूँ।
तुम तो और अधिक गलत हो, पहले वाले अनुभव पर तो आधारित थे।
सालों बाद एक ने जबाब दिया –> “यही जानने तो यहाँ आया हूँ ।”
सालों तक गुरुकुल में यही एक विद्यार्थी रहा।
ब्र. (डॉ.) नीलेश भैया
दो प्रकार की अनुकम्पा –>
- सामान्यजन के प्रति अनुकम्पा।
- साधुजन के प्रति अनुकम्पा।
इसमें विशेष पुण्य/ लाभ मिलेगा। Feeling विशेष होगी क्योंकि Object Higher Quality का होता है। इसमें सावधानी कि घटना ही न घटे जबकि सामान्यजन पर अनुकम्पा, घटना घटित होने के बाद में की जाती है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र – 6/12)
मोह ऐसा है जैसे मरुस्थल में सावन तो आया (दिखता/ लगता) पर पतझड़ न गया (आत्मा से मोह)।
इनके पेड़ों पर सुख/ शांति के फल कैसे लग सकते हैं!
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
बिना प्रमाद
श्वसन क्रिया सम
पथ में चलो
.
आचार्य श्री विद्यासागर सागर जी
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