Category: अगला-कदम
प्रत्येक / साधारण
प्रत्येक व साधारण, वनस्पतिकायिक के 2 भेद हैं। प्रत्येक के 2 भेद ….सप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित…. साधारण/ निगोदिया सहित सप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित निगोद रहित। सप्रतिष्ठित कौन
क्षुद्र भव
क्षुद्र भव = लब्धि-अपर्याप्तक (1 श्वास में 18 बार जन्म मरण)। लगातार उत्कृष्ट जन्म – 2 इंद्रिय में – 80, 3 इंद्रिय में – 60,
काय
कर्मोदय से काय जीव को अनुभव कराती है कि वह स्थावर या त्रस (द्वींद्रिय से पंचेंद्रिय) जाति का जीव है। जाति, त्रस और स्थावर जीव-विपाकी
अपूर्व-करण में काम
अपूर्व-करण के कार्यों (बंधव्युच्छित्ति) को देखते हुए, इसके 7 भाग किये हैं। पहले, छठे व सातवें गुणस्थानों के कार्य बताये गये हैं। मेरे प्रश्न किये
अप्रमत्त
छठे गुणस्थान के क्षयोपशम-सम्यग्दृष्टि को सातिशय-अप्रमत्त में जाने के लिये तीनों करण तीन बार करने होते हैं: 1. अनंतानुबंधी की विसंयोजना के लिये। 2. सम्यक्-प्रकृति
अपूर्वकरण
अपूर्व करण में भी 4 कार्य…. 1. गुण-श्रेणी-निर्जरा = गुणित क्रम में, श्रेणी रूप (एक के बाद, एक कर्मों की लड़ियाँ), (असंख्यात गुणी) 2. गुण-संक्रमण
संयम और कषाय
संज्वलन के क्षयोपशम से सकल-संयम। संज्वलन का उदय तो निचले गुणस्थानों में भी पर 6 गुणस्थान तथा आगे सिर्फ संज्वलन का ही उदय। ऐसे ही
प्रमाद / कषाय
पहले से छठे गुणस्थान तक जब भी प्रमाद आयेगा कषाय के उदय से ही आयेगा। पर 7वें गुणस्थान में कषाय तो रहेगी पर प्रमाद नहीं।
द्रव्य/भावेंद्रिय
द्रव्य इंद्रियों की रचना आत्मा के प्रदेशों से। भावेंद्रिय लब्धि* और उपयोग** रूप में॥ क्षयोपशम से भावेंद्रिय → द्रवेंद्रिय → ज्ञान/ उपयोग। *(ज्ञानावरण कर्म का
पुरुषार्थ / काललब्धि
श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक के अनुसार पुरुषार्थ से ही काललब्धि आती है। जैसे सम्यग्दर्शन तभी जब कर्मों की स्थिति अंत:कोड़ाकोड़ी सागर की रह जाती है तो
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