Category: अगला-कदम
अजीव + काया
अजीव कायवान 4 द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल) बताये। लेकिन पहले 3 को कायवान उपचार से कहा क्योंकि वे बहुप्रदेशी हैं। सही में काया तो
देवों की अवगाहना
पहले दूसरे स्वर्ग में 7 हाथ*, 3-4 –> 6, 5-8 –> 5, 9-12 –> 4, अब ½, ½ हाथ कम होगी। 13-अः14 –> 3½, 15-16
निमित्त / उपादान
“एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता”, यह सर्वथा सत्य नहीं। दूसरे द्रव्यों के उपादान कर्ता नहीं हो सकते लेकिन निमित्त कर्ता तो
चल/अचल प्रदेश
जीव तथा पुद्गल के प्रदेश स्थिर नहीं होते। जीव में 8 अचल प्रदेश होते हैं; हालाँकि स्पंदन तो होता है, Circulation नहीं। चल चल ही
नरकों के बिल
पहले से सातवें नरकों में बिलों की संख्या तथा नारकियों की संख्या भी कम होती जाती है लेकिन दु:ख बढ़ते जाते हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर
श्रमण / श्रावक
श्रमण तथा श्रावक की यदि विशुद्धि बराबर हो तो भी बेहतर कौन ? श्रमण। क्यों/ कैसे ? 1. चारित्र की अपेक्षा। 2. भविष्य में और
स्कंध की गति
परमाणु ही नहीं, स्कंध भी एक समय में 14 राजू गति करता/ कर सकता है (विग्रह गति में कर्म रूप)। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
जीव का स्वभाव
कहा है कि जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन का होता है, पर हर स्थिति में संभव नहीं हो सकता है। इसलिये इसे सिर्फ़ स्वभाव की अपेक्षा
वेदक-सम्यग्दर्शन
जो वेदन कराये सम्यग्दर्शन का उसे वेदक-सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह आयतनों से जुड़े रहने से बना रहता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (शंका समाधान
लौकांतिक देव
लौकांतिक देव को श्रुत केवली नहीं कह सकते हैं। ये पढ़ा नहीं सकते बस द्वादशांग के पाठी हैं। ज्ञान का क्षयोपशम होता है पर अंतिम
Recent Comments