Category: अगला-कदम
प्राण
प्राण, शरीर तथा शरीर से सम्बंधित वस्तुओं को चलाने में सहायक होते हैं । (प्राण = इन्द्रियां+मन,वचन,काय बल+उच्छवास+आयु) 1. अंतरंग – चेतन प्राण 2. बाह्य
काल
काल को अप्रदेशी कहा पर अप्रदेश से अस्तित्व रहित नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों का अभाव का आशय है । काल को एक प्रदेशी भी कहा
बंध / बद्ध
बंध वर्तमान के, बद्ध (जैसे बद्धायुष्क) जो बंध चुका है/सत्ता में । आचार्य श्री विद्यासागर जी
आयु की उदीरणा
6ठे गुणस्थान तक आयु की उदीरणा हो सकती है । (यानि अकाल मरण हो सकता है) मुनि श्री सुधासागर जी
कर्मोदय / उदीरणा
कर्मोदय को तो रोक नहीं सकते, उदीरणा को तो रोक सकते हैं । परोसी खीर कर्मोदय है, उस पर दाल का (मसाले वाला) छोंक उदीरणा,
भेद-विज्ञान
भेद-विज्ञान दिखता है । भेद करके ज्ञान करना ही सच्चा विज्ञान/ भेेेद-विज्ञान हैै । भेद पहले बाह्य पदार्थों से, फिर आत्मा और कर्मों में करना
तीर्थंकर-प्रकृति
यह पाप को निर्जरित करती है* । यह भी औदायिक-कर्म है, पर मांगलिक है । जबकि बाकि सब औदायिक-कर्म अमांगलिक होते हैं । आचार्य श्री
जलकाय
प्रासुक जल करने में आरंभिक हिंसा स्थावर जीवों की है, जो श्रावक हर क्रिया (भोजनादि) में करता ही रहता है । पर श्रावक हिंसा करने
विभंगावधि / मरण
विभंगावधि* के साथ मरण नहीं होता । मरण आने पर विभंगावधि छूट जाता है । * प्राकृत-भाषा में विहंगावधि कहते हैं आर्यिका श्री विज्ञानमति माताजी
स्व-पर
अन्य द्रव्यों में परिणाम – यदि शुभ तो पुण्य, अशुभ तो पाप । स्वयं में परिणाम – दु:खों का क्षय । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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